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________________ १-सामायिकाध्ययनम् :: २-उपोद्घातनियुक्तिः] [ ८३ एतेहिं कारणेहिं लक्ष्ण सुदुल्लहपि माणुस् । ण लहइ सुति हियरि संसारुत्तारणि जीवो ॥४२ ।। जाणाऽऽवरणपहरणे जुद्धे कुसलत्तणं च णीती य।। दक्खत्तं ववसाओ सरोरमारोग्गया चेव ।।४३ ।। 5 दिट्ठ सुएऽणुभूए कम्माण खए कए उसमे अ। मणवयणकायजोगे अ पसत्थे लब्भए बोही ॥४४ ।। अणुकंपऽकामणिज्जर बालतवे दाणविणयविभंगे। संयोगविप्पओगे वसणूसवइड्डि सक्कारे ॥४५ ।। वेज्जे . मेंठे तह इंदणाग कय उण्ण पुप्फसालसुए। 10 सिवदुमहुरवणिभाउय आहीर-दसण्णिलापुत्ते ।।४६ ।। सो वाणरजूहवती कंतारे सुविहियाणुकंपाए । भासुरवरबोंदिधरो देवो वेमाणिओ जाओ ॥ ४७ ।। अब्भुट्ठाणं विगए परक्कमे साहुसेवणाए य।। सम्मदंसणलभो विरयाविरईइ विरईए ॥४८॥ सम्मत्तस्स सुयस्स य छावट्ठी सागरोवमाई ठिई। सेसाण पुवकोडी देसूणा होइ उक्कोसा ॥४६ ।। सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंखभागमेत्ता उ ।। सेढीअसंखभागो सए सहस्सग्गसो विरई ॥८५० ।। सम्मत्तदेसविरया पडिवना संपई असंखेज्जा। संखेज्जा य चरित्ते तीसुवि पडिया अणंतगुणा ॥ ५१ ॥ सुयपडिवण्णा संपइ पयरस्स असंखभागमेत्ता उ । सेसा संसारत्था सुयपरिवडिया हु ते सव्वे ॥ ५२ ॥ 20 Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002598
Book TitleNiryukti Sangraha
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year1989
Total Pages624
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Spiritual
File Size19 MB
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