________________
सम्मत्त-बीय-लंभो णाम पढमो अवसरो तत्थ य सुदंसणार्यारस्स कहाए मलवई कहा कह तम्मि निव्वविज्जइ दुक्खं दुक्खुद्ध एण हियएण । अदाए पडिबिब व जम्मि दुवखं न संकमइ ।।८०२।। विरला जाणति गुणा विरला विरयंति ललियकव्वाई। विरला सामण्णघणा परदुक्खे दुक्खिया विरला ॥ मए भणियंमाहण ! अहं तुह दुक्खदुक्खिओ दुक्खनिग्गह समत्यो य । ता कहेसु मह दुक्खं जेण तप्पडियारं च वितमि ।८०४। माहणेण भणियं-''महाभाग ! सुणदारिद्दाणुभावेणेव पसूया बंभणी निरंतरं अट्ठ धूयाओ। दारिद्द य तुम्ह गुणा जं रुच्चइ जवसोव आहारो।। भुक्खा य होइ पउरा भज्जा य वियाउरी होइ । एक्को च्चिय पर दोसो जं काले भोयणं न संपडइ ।८०६। दारिद्धं रक्खा-कडगं व सेसाण दोसाण । दिण्णाओ सत्त मए समगुणाण बंभण-तणयाण ।।८०७॥
ताण मज्झे पढमा दूहवा, बीया विहवा, तइया सरोगा, चउत्था वंझा, पंचमा मरंत-वियाइणी, छट्ठा करे असुद्धा, सत्तमा साडिए अहमा, अट्ठमा पुण पत्त-जोवणा दिज्जमाणी विन कोइ पडिच्छइ । तच्चिताए न रोयइ भोयण न समागच्छद निद्दा । जहा धूया जोषणमारुहइ तहा तहा जणयाण वि एवंविहा चिता पथट्राइ । सुकुलमाओ सुरूवो कलासु परिनिट्टिओ विणीओ य । विहवा वाई भोई समचित्तो होज्ज कह दइओ।८०८। अह कहवि दिव्व-जोया होइ सुया दूहवा व विहवा वा । पवसिय-पई व कुपई तहवि दुहं देइ जणयाण ।८०९। जह जह दुहिया दुहिया तह तह पियरा वि दुक्खिया हुंति । अह होज्ज कहव सुहिया तह वि य पट्टिन सा
. मुयइ ।।८१०।। जणणि-जणयाण जायइ चिता धुयाए जायमेत्ताए । वड्ढंतीए पुणो पुण ता चिता जाव सा धरइ ॥८११।। जइ मुयह जहिच्छाए नियमेण करेइ ता कुलकलंक । मुत्तिमई विय चिता धूया धण्णाण न हु जाया ॥८१२।।
मए भणियं-“जइ वि एवं तहा वि लोयववहारो एसो । एसा य दुहिया ते अहं परिणमि । विरमउ तुह चितासायरो ।" भणियं माहणण-"भट्रिणीं पच्छामि ।" पच्छिया-"पिए ! राय उत्तो तह धयं न वा?" तीए भणियं-“अहमेंत्थ गब्भाहाणाओ पभिइ केवलं किलेस-भायणदाणं पइ तुम पमाणं । दिज्जउ कस्स वि जो तुम्ह सम्मओ । केवलं अण्ण-दुहिया-दुहेणं चेवाहं दुहिया इयमेव जहा न दुक्खभायणं होइ तहा कार्यव्वं । भट्टो भणियं (भणइ) - जं जेणं पावियव्वं सुहं व दुक्खं व एत्थ लोगम्मि । सो तं लहइ अवस्सं को तं किर अण्णहा काही ।।८१३।। जइ विहियं किपि सुह इमाए वालाए अण्ण जम्मम्मि । ता होही नणु सुहिया अह गुण निय-भइणि-सारिच्छा।
गंधव्य-वीवाहेण परिणाविओ अहं । गओ सभवणं । मुणिओ कहवि एस वइयो ताएण । उवालद्धोहं रहसि'नणु कुलक्कामागयं खत्तियत्तणं मोत्तूण बंभणो तुम जाओ, जेण माहणधूयाओ परिणेसि ।' अण्णं च सच्छंदो, अम्हे वि न पुच्छसि ? अहो ! ते विवेगो ? अहो ! ते विणीयत्तणं ? अहो ! ते गुरुयण-भत्ती ?" एवं सुणिय संजाय-लज्जो उट्रिओ हं ताय-मीवाओ । गओ नियवास-भवणं । नुवण्णो पल्लंके । चितिउं च पक्त्तो-"कयं ताव मए सयलकलागणं, आयं कुसलत्तणं, सिद्धा नाणाविमता, जाणिया गुलिया-पओगा, पर सव्वं पि निरत्थयं जेण जणणि-जणया वि नाराहिया । ता अलं मम इहट्टिएणं । वच्चामि देसंतरं ।” काऊण गुलियापओगेण सामवण्णमप्पाणयं निग्गओ रयणीए । आहिंडिओ बहणि गामागर-नगराणि । कत्थई वीणा-विणोएण, कत्थइ चित्तकम्मेण, कहिं वि पत्तच्छेज्जेण, कत्थइ कव्वकरणविणोएण, कत्थइ आउज्जकुसलत्तणेण सव्वत्थलद्धविजओ कमेण परिब्भमंतो पत्तो पुन्व-दिसा-वहूमुह
Jain Education International 2010_04
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org