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ग्रन्थ में एक प्रज्ञापणा सूत्र के सिवा अन्य किसी भी ग्रंथ का उल्लेख उन्होंने नहीं किया । समस्त ग्रन्थ में केवल १०-१२ ही प्राचीन गाथाएँ आती है । चरित्रवर्णन प्राचीन ग्रंथ के उद्धरण आदि से रहित यह चूर्णिग्रन्थ भगवतीसूत्र पर एक संक्षिप्त टिप्पण के रूप में प्रस्तुत है ।
चूर्णिकार
भगवतीचूर्ण के कर्ता कौन थे यह तो निश्चय करना कठिन है, क्योंकि समस्त चूर्णि ग्रंथ में कर्ता का कोई भी उल्लेख नहीं मिलता क्योंकि अबतक की उपलब्ध आगमचूर्णियाँ विशाल है । उनमें जो विषयवस्तु का सूक्ष्म विवेचन हुआ है वह अपने आप में अपूर्व एवं विवेचनात्मक दृष्टि से परिपूर्ण है। चूर्णि इस शब्द के शब्दार्थ को सार्थक करता है । इस भगवती चूर्णिकार की जो विशिष्ट धारणाएँ थी उन्हें वृत्तिकार श्री अभयदेवसूरि ने अपनी वृत्ति में आदर के साथ स्थान दिया है। श्री जिनदासगणि तो विशेष रूप से आगम ग्रन्थ के विवेचक थे । उन्होंने निशीथ, बृहद्कल्प, आवश्यक, दशवैकालिक, दशाश्रुतस्कन्ध आदि अल्पकाय आगम पर बृहदूकाय चूर्णियों की रचना की है तो बृहद्काय भगवती सूत्र पर अल्पकाय एवं अत्यन्त संक्षिप्त टिप्पणात्मक चूर्णि की रचना क्यों की यह एक विचारणीय है । अतः इस चूर्णि के कर्ता जिनदासगणिमहत्तर नहीं किन्तु कोई पूर्ववर्ती आचार्य थे ऐसा मेरा अनुमान है। सर्वविश्रुत एक परम्परा रही है कि प्रायः चूर्णि के कर्ता श्री जिनदासगणिमहत्तर थे तो इस चूर्णि के कर्ता भी श्री जिनदासगणिमहत्तर होने चाहिए, लेकिन इसकी पुष्टि करना कठिन है । इनका समय सातवीं सदी का माना जाता है। भगवतीसूत्र पर आचार्य अभयदेवसूरि ने सं. ९०२८ में वृत्ति की रचना की थी । इन्होंने अपनी वृत्ति में अनेक स्थानों में चूर्णि का उल्लेख किया है । अतः यह चूर्णि ग्यारहवीं सदी से भी पूर्व की रचना है यह सिद्ध होता है ।
भाषा की दृष्टि से चूर्णिकार की भाषा का जो रूप वर्तमान में उपलब्ध है वह समय के अनुसार परिवर्तित है। वर्तमान में भगवतीचूर्णि की प्रतियों में कुछ ही स्थान में शब्द के प्राचीन रूप मिलते हैं जैसे समय के स्थान में समत, निगोद के स्थान में नितोत, रागके स्थान में राणो इत्यादि । अधिकतर शब्दों का प्राकृतिकरण ही मिलता है। साथ ही चूर्णिकार समय समय पर सैद्धांतिक बातों को सप्रमाण सिद्ध करने के लिए संस्कृत भाषा दार्शनिक शैली से चर्चा करते है और प्राकृत मिश्रित संस्कृत का भी प्रयोग करते रहे है । यह उनकी अपनी शैली है।
इस संक्षिप्तचूर्णिको भगवतीसूत्र और उसकी टीका तथा प्रज्ञापनासूत्र के अध्ययन के बिना समझना कठिन है ।
भगवतीचूर्ण के सम्पादन में प्रति सम्बन्धी अनेक कठिनाईयाँ होने से यह कार्य कष्ट साध्य सा रहा अतः भूलों का रहना भी स्वाभाविक ही है । पाठक अगर भूलों की और मेरा ध्यान आकर्षित करेंगे तो मै उनका अनुग्रहीत रहूँगा ।
श्री हेमचन्द्राचार्यज्ञानभंडार पाटण एवं लालभाई दलपतभाई भारतीयसंस्कृतिविद्यामंदिर के व्यवस्थापकों का भी आभारी हूँ जिन्होंने सम्पादन के लिए 'भगवतीसूत्र चूर्णि की प्रतियों की उपलब्धि में तथा प्रकाशन में सहायता की ।
रूपेन्द्रकुमार पगारिया
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