________________
(७) सप्तभाषी आत्मसिद्धि
पूर्वप्रस्तुति
xxiii
श्री आत्मसिद्धि शास्त्र
SAPTABHASHI ATMASIDDHI
ॐ नमो अरिहंताणं । नमो सिद्धाणं ।
नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं । नमो लोए सव्व साहूणं । एसो पंच नमुक्कारो सव्व पावप्पणासणो ।
मंगलाणं च सव्वेसि पढमं हवइ मंगलम् ॥
अनादिकाल से गूँजते हुए इस पंचपरमेष्ठी मंत्र में पंच परमगुरुओं के प्रति व्यक्त वन्दना उनके सत् चित् आनन्द, शुद्ध, बुद्ध, चैतन्यघन स्वरूप, शुद्धात्मस्वरूप को, सहजात्म स्वरूप को की गई है।
नमस्कार महामंत्र की इस वन्दना के द्वारा अपने शुद्ध आत्मस्वरूप की ओर अभिमुख होने और इस महामंत्र के द्वारा आत्मतत्त्व को प्राप्त करने, उस का संक्षिप्त स्वरूप पाने के लिये एक घोष उठा :
Jain Education International 2010_04
सहजात्म स्वरूप, सहजात्म स्वरूप परमगुरु ।
सहजात्म स्वरूप परमगुरु, सहजात्म स्वरूप परमगुरु ॥
इस महाघोष मंत्र की आराधना के द्वारा आत्मतत्त्व की खोज और प्राप्ति ज्ञान-दर्शन-चारित्र के रत्नत्रयी पथ पर चलते हुए ही सम्भव है। . इस रत्नपथ पर अनादि अनंत की इस धारा में बहुरत्ना वसुंधरा के कई रत्नों ने चलकर आत्मतत्त्व की खोज की । ऐसे खोजी रत्नों की ध्वनि - प्रतिध्वनि इस धरती पर अभी भी गूंज रही है। जिन की आत्मदर्शन करानेवाली अमरकृति यहाँ प्रस्तुत हो रही है, वे एक ऐसे ही आत्मपथ के पथिक, खोजी, महादिव्या के कुक्षीरत्न थे :
महादिव्याः कुक्षीरलं, शब्दजीत रवात्मजम् । राजचन्द्रं अहं वंदे, तत्त्वलोचन दायकम् ॥
-
अपने अनंत शक्तिमान आत्मस्वरूप का स्वयं अनुभव कर के आत्मार्थी को भी आत्मा की अनुभूति कराने निमित्त हुई है 'आत्मसिद्धि' की यह संक्षिप्त, सरल किन्तु महान रचना । जैन तत्त्व के ग्रंथसागर १४ पूर्वो के मध्य का ७ वाँ पूर्व है 'आत्मप्रवाद' । इस की यह संक्षिप्त रचना है, जो एक संध्या को आत्मदर्शन की अवस्था में एक ही बैठक में, धाराप्रवाह लिखी गई है। आत्मा के अस्तित्त्व, स्वरूप, कर्तृत्त्व, अनुभव और मोक्ष का इस में निरूपण किया गया है। इस परम उपकारक रचना के कर्ता है - १९वी शती में भारत की इस धरती पर विचरे हुए परम तत्त्वदर्शी युगपुरुष एवं महात्मा गांधीजी के आध्यात्मिक मार्गदर्शक श्रीमद् राजचन्द्रजी ।
इस रचना के उद्देश्य का संकेत स्वयं श्रीमद् राजचन्द्रजी ने इन शब्दों में किया है "देह के हेतु अनंतबार आत्मा का क्षय किया है। मुमुक्षु जीव को अवश्य निश्चय होना चाहिए कि आत्मा के हेतु जिस देह का क्षय किया जाएगा, उस देह में आत्मविचार का जन्म होने योग्य जानकर, सर्व देहार्थ की कल्पना छोड़ देकर, केवल एक आत्मार्थ में ही उसका उपयोग करें ।”
यहां प्रस्तुत है - इस प्रकार के महान उद्देश्यवाली यह महान रचना - "आत्मसिद्धि शास्त्र" ।
(श्री आत्मसिद्धि शास्त्र के श्री वर्धमान भारती इन्टरनेशनल फाउन्डेशन द्वारा प्रकाशित, प्रा. प्रतापकुमार टोलिया लिखित एवं स्वरित सर्वप्रथम लांग प्ले रिकार्ड, सी. डी. एवं कैसेट का स्वरस्थ पूर्व-प्रस्तुतीकरण । )
जिनभारती • JINA-BHARATI •
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org