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________________ (७) सप्तभाषी आत्मसिद्धि xvi SAPTABHASHI ATMASIDDHI प्रतीक्षा है सूर्य की ...! पद्यानुवाद सद्गुरुदेव श्री सहजानन्दघनजी ने ज्येष्ठ सं. २०१४ में, परमकृपालुदेव द्वारा “आत्मसिद्धि" के मूलनिर्माण-की-सी आत्मावस्था में बाहर निकलने दें परमगुरुराज श्रीमद् रूपी सूर्य को, जो स्वयं एक ही बैठक में अल्प समय में किया था। श्री भंवरलालजी नाहटाने उसे प्रकाशित ही है, किन्तु भाषा, मत, पंथ, संप्रदाय रूपी बादलों की र तब बड़े भाव से प्रकाशित करवाने के बाद वह अलभ्य सा हो गया था और संकीर्ण कृत्रिम घटाओं के पीछे जिसे अनजाने में छिपाया गया है, स्वयं अप्रकाशित रहने की इच्छा रखनेवाले सद्गुरुदेव ने उसे पुनः प्रकाशित करवाने का कोई संकेत तक नहीं किया था। दूसरी ओर से दवाया गया है..!! परमकृपालुदेव रूपी सूर्य को बादलों से अनावृत्त करने के अपने अनेक आत्यंतिक प्रसन्नता की बात है कि परमगुरु अनुग्रह से 'श्री आत्मसिद्धि' प्रयत्नों में से एक प्रयत्न के रूप में इन पंक्तियों के लेखक को उन्होंने श्री का यह दीर्घ-प्रतीक्षित हिन्दी पद्यानुवाद आज मूल गुजराती के साथ आत्मसिद्धि का नूतन हिन्दी अनुवाद करने प्रेरित और प्रवृत्त किया । परन्तु समश्लोकी बृहत् रूप में प्रकाशित हो रहा है। परमकृपालु देव की इस यह कार्य अधूरा रह गया, उनका स्वयं का विदेहवास हो गया और आज महान उपकारक कृति का इस रूप और इस प्रमाण में प्रकाशन प्रधानतः उनकी ही यह अनुवाद कृति प्रकाशित हो रही है, जिसका उनके जीवन तक वर्धमान भारती द्वारा प्रस्तुत 'श्री आत्मसिद्धि' आदि के लांगप्ले स्टिरियो न तो हमें कोई पता भी था, न उन्होंने स्वयं इस कृति को कभी कोई उल्लेख रिकार्ड के साथ संगति, स्वाध्याय, स्मरण, स्मृतिपाठ-सुगमता के उद्देश्यों किया था! आखिर श्रीमद-सूर्य को हम जैसों के नहीं, उन्हीं के पावन हस्तों से हो रहा है। द्वारा बादलों से अनावृत्त होना है न? गुजराती नहीं जाननेवाले आत्मार्थी जनों के हेतु एवं अनंत उपकारक सचमुच ही आज के क्षुब्ध, अशान्त, संभ्रान्त, अज्ञानांधकार से पूर्ण जग को परमकृपालु देव श्रीमद् राजचंद्रजी के परम श्रेयस्कर साहित्य को गुजरात के परमगुरुराज श्रीमद् रूपी सूर्य के ज्ञान प्रकाश की अत्यन्त ही आवश्यकता बाहर दूर सुदूर तक पहुंचाने के हेतु यह व्यवस्था सोची गई है। इस प्रकार है। चरम तीर्थपति भगवान महावीर के निर्वाणोत्सव के उपलक्ष्य में यह हिन्दी, अंग्रेजी, कन्नड, तमिळ, बंगला आदि अनेक भाषाओं में जैन दर्शन उपयुक्त ही है कि अतीत में भगवान के अंतरंग शिष्य रह चुकनेवाले और के मूल एवं प्रतिनिधि तत्त्व को व्यक्त करनेवाले श्रीमद्जी के साहित्य को वर्तमान में भगवान महावीर के ही, जिनेश्वरदेव के ही, सम्प्रदायातीत प्रकाशित एवं प्रसारित करना 'वर्धमान भारती' का एक प्रमुख उद्देश्य है। मूलमार्ग' को व्यक्त करनेवाले परम उपकारक युगपुरुष श्रीमद् राजचंद्रजी इस उद्देश्य के मूल में है परमकृपालदेव के शरणप्राप्त - अनुग्रहप्राप्त- का यह साहित्य अनेक रूपों में, अनेक भाषाओं में, प्रकाशित हो। एकनिष्ठ उपासक आत्मद्रष्टा, आत्मज्ञ सद्गुरुदेव योगीन्द्र युगप्रधान श्री पत्र-पुष्प' के रूप में भी सही, 'वर्धमान भारती' को अपनी लांगप्ले रिकार्डो सहजानन्दघनजी (संस्थापक, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, रत्नकूट, हम्पी, का और इस हिन्दी पद्यानुवाद का लाभ संप्राप्त हो रहा है यह परम सौभाग्य कर्नाटक) की श्रीमद्-साहित्य विषयक यह अत्यन्त ही उपादेय और की बात है। इस लाभ को सम्भव करनेवाले परमगुरुदेवों के योगबल, अनुमोदनीय ऐसी अंतरंग भावना: "श्रीमद् का साहित्य गुर्जरसीमा को अनुग्रहबल और उन अनेक आत्मार्थीजनों के सहयोगबल को हम भूल नहीं लांघ करके हिन्दीभाषी विस्तारों में महकने लगे यह भी वांछनीय है। महात्मा सकते। गांधीजी के उस अहिंसक शिक्षक को गांधीजी की भाँति जगत के समक्ष उन परमोपकारक परमगुरुदेवों के पावन चरणों में उन्हीं के ये पुष्प समर्पित प्रस्तुत करना चाहिए, कि जिससे जगत शांति की खोज में सही मार्गदर्शन कर कृतकृत्य बन उनके प्रति आत्मभाव से अनेकशः वन्दनाएं प्रेषित कर प्राप्त कर सके। इतना होते हुए भी यह कोई सामान्य करामात नहीं है कि विदा चाहते हए हम पनः दोहराते हैं. आज अत्यधिक प्रतीक्षा है श्रीमद हम लोगों ने उनको (श्रीमद् को) भारत के एक कोने में ही छिपाकर रखा है। पाकर रखाह रूपी सूर्य की! - क्योंकि मतपंथ - बादल की घटा में सूरज को ऐसा दबाए रखा है कि शायद ही कोई उनके दर्शन कर सकें। ॐ॥" भाद्रपद शु.१०,२०३०,बेंगलोर (१९७४ में आत्मसिद्धि' के प्रथम हिन्दी अनुवाद प्रकाशन समय) सविशेष प्रसन्नता की बात है कि उनकी यह भावना, 'श्री आत्मसिद्धि शास्त्र' के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद की उन की ही एक पुरानी कृति के नूतन प्रकाशन के द्वारा साकार हो रही है। श्री आत्मसिद्धि का यह हिन्दी •जिनभारती•JINA-BHARATI • JainEducation International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002593
Book TitleSapta Bhashi Atmasiddhi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorPratapkumar J Toliiya, Sumitra Tolia
PublisherJina Bharati Bangalore
Publication Year2001
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati,
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Rajchandra
File Size21 MB
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