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(७) सप्तभाषी आत्मसिद्धि
SAPTABHASHI ATMASIDDHI
सम्पादकीय
निकल पड़ता है कि प्रस्तुत 'आत्मसिद्धि' सचमुच ही 'आत्मोपिनषद्' है।"
इस 'आत्मोपिनषद्' का निगूढ़ हार्द समझने में मुझे मेरे दूसरे प्रत्यक्ष परम सप्तभाषी आत्मसिद्धि
उपकारक आत्मदर्शी सद्गुरु पूज्य श्री सहजानंदघनजी (भद्रमुनिजी) का परम प्रज्ञा, स्वयंभू स्मृति, निर्मल शील, उत्कृष्ट भक्ति, अहैतुक करुणा, हम्पी, कर्णाटक, दक्षिण भारत में सुयोग और सामीप्य मिला यह मेरा परम मध्यस्थ दृष्टि, तीव्र वैराग्य और आत्मदर्शन - आत्मसमाधि - सौभाग्य था । इतना ही नहीं, उनकी ही भावना, आज्ञा और प्रेरणा से इसी आत्मानुसंधान का अप्रमादयोगपूर्ण सातत्य, इत्यादि अनेक संसिद्धियों से 'आत्मसिद्धि शास्त्र' का सप्ताभाषी स्वरूप का संकलन-सम्पादन एवं नया युक्त आत्मदर्शी युगपुरुष ज्ञानावतार श्रीमद् राजचन्द्रजी की एक अद्वितीय हिन्दी अनुवाद विषम परिस्थितियों में से भी मुझ से आरम्भ हो पाया था महान कृति के सम्पादकीय, प्राक्कथन, मूल्यांकन-समालोचन या परिचय और उसे उन्होंने स्वयं देखा और सुधारा भी था । यह हमारे बड़े ही अधूरे की कोई आवश्यकता है क्या? ... यदि हो भी तो यह नम्र पंक्तिलेखक और हीन भाग्य की बात रही कि उक्त अनुवाद पूरा होने से पूर्व ही, पू. उन लोगों, उन धन्यजनों में से नहीं है जो श्रीमदजी और उनकी इस महान सहजानंदघनजी ने सभी को वज्राघात का अनुभव कराते हुए असमय ही चिरंतनकृति पर कुछ कहने-लिखने का अधिकार रखते हों । यह तो उन्हीं अपना देहत्याग कर दिया। का अधिकार क्षेत्र है जिन्होंने स्वयं आत्मदशर्न या आत्मविद्या का अमृत
क्या ही अच्छा होता कि मेरा पूरा का पूरा अनवाद उनकी स्वानुभूत दृष्टि से अनुशीलन किया हो।
गुज़रने का सौभाग्य प्राप्त करता । किन्तु मैं भी (उसी अर्से में ही अग्रज बन्धु फिर भी यहां मैं यह अनिधकार चेष्टा इस लिये करने जा रहा हूं कि शांति- के भी असमय निधन-जनित जिम्मेवारियों और) अप्रत्याशित परिस्थितियों खोजी वर्तमान विश्व को आत्मशांति की सही दिशा की प्राप्ति हेतु इस के चक्कर मे फँसा रहा, वे चल बसे और मन की सब मन में रह गई। महाकृति की महती आवश्यकता है जैसा कि महापुरुषों की संकेत-आज्ञा है उपर्युक्त परिस्थितियों में उनके जाने के पश्चात् मै स्वयं वैसी अंतथिति में
और श्रीमद्जी के जीवन-दर्शन एवं इस कृति में निहित 'कवन ने मुझ जैसे नहीं रहा कि मेरा अधूरा हिन्दी अनुवाद एवं सप्तभाषी सम्पादन पूर्ण कर सामान्य व्यक्ति पर परोक्ष रूप से किये हुए अनंत उपकार को कुछ सकूँ और उसे शीघ्र प्रकाशित करा सकूँ । अधूरे अनुवाद एवं सम्पादन का अभिव्यक्ति मिल सके।
शेष भाग किसी अधिकारी व्यक्ति को दिखलाये बिना प्रकाशित करने की इस वर्णनातीत उपकार के सम्बन्ध में मैं तो मौन रहकर इतना ही कहना वृत्ति नहीं रही। अतः यह प्रकाशन वर्षों तक अवरुद्ध रहा। चाहूंगा कि आत्मतत्त्व के जिज्ञासु और आत्मदशर्न के अभीप्सु साधक को इसी बीच स्वयं पू. सहजानंदघनजी की अनुवादित आत्मसिद्धि की हिन्दी इस छोटी-सी कृति में से अनुभूत ज्ञानी पुरुषों की स्वानुभवचिन्तना के समग्र कृति एक चमत्कारवत् एक बुजुर्ग हितैषी के पास से मिली । जनभाषा निष्कर्ष-रूप “सार-सर्वस्व' मिल सकता है। यहां गागर मे सागर भरा है। हिन्दी की वह कृति सरल और सुंदर प्रतीत हुई। प्रसिद्धि से दूर रहने वले बस, इस चमत्कृति युक्त कृति के विषय में मैं स्वयं इस से अधिक कुछ एवं कदाचित् मुझे उत्साहित करने की दृष्टि रखनेवाले पू. सहजानंदघनजी नहीं कहते हुए, मेरे प्रत्यक्ष परम उपकारक विद्यागुरु प्रज्ञाचक्षु पूज्य ने अपनी इस अनुकृति का संकेत तक कभी मुझे अपनी सदेहावस्था में नहीं पंडितवर्य श्री.सुखलालजी के शब्दों में ही कहना उचित समझता हूँ:- किया था । परन्तु उन्हीं की यह हिन्दी-अनुकृति को ही उस सप्तभाषी रूप में "श्रीमद् राजचन्द्र की प्रस्तुत कृति 'आत्मसिद्धि' के नाम से प्रसिद्ध है। स्थान देना उचित लगा, मेरी अधूरी एवं अनुभूतिशून्य कृति को नहीं । इस ऊपर उसे मैंने 'आत्मोपिनषद्' कहा है। 'आत्मसिद्धि' को पढ़ते हए और कृति के मिलने के बाद बीच बीच में स्व. पू. पं. सुखलालजी एवं माताजी पुनः पुनः उसका अर्थ सोचते हुए यह प्रतीत हुए बिना नहीं रहता कि इस धनदेवीजी दोनों की दूर एवं निकट से प्रेरणा मिलती रही और अन्य कार्यों छोटी-सी कृति मे श्रीमद् राजचन्द्र ने आत्मा-सम्बन्धी आवश्यक स्वरूप के साथ सप्तभाषी के इस सम्पादन-संकलन का थोड़ा थोड़ा स्पर्श करता पूर्णरूपेण बतला दिया है । मातृभाषा (गुजराती) में छोटे छोटे दोहे-छंदों में रहा।
और उसमें भी तनिक भी खींचातानी कर अर्थ निकालना न पड़े ऐसी सरल परन्तु इस अवरुद्ध सम्पादन-प्रकाशन कार्य को प्रकाशोन्मुख करने का सारा प्रसन्न शैली में, आत्मा का संस्पर्श करनेवाली अनेक बातों का क्रमबद्ध श्रेय यदि किसी को है तो स्वनामधन्या सहजात्मा विदुषी दीदी विमलाजी एवं संगत निरूपण देखते हुए और आत्मा सम्बन्धित पूर्ववर्ती जैन जैनेतर को । उनके निष्कारण निस्पृह उपकार, सत्प्रेरणा, पद पद पर सर्व प्रकार के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के साथ उस की तुलना करते हुए अनायास ही यह मुँह से
•जिनभारती .JINA-BHARATI.
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