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जैसे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाणों से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है, वैसे ही आगम (शब्द), उपमान और अर्थापत्ति द्वारा भी आत्मा प्रमाणसिद्ध हैं।'
जिनभद्रसूरि के अनुसार आत्मसिद्धि :-जैसे गुण और गुणी की अभिन्नता है, वैसे ही स्मरण आदि गुणों से जीव भी प्रत्यक्ष सिद्ध है। इन्द्रियाँ कारण हैं। अत: इनका कोई अधिष्ठाता अवश्य होना चाहिये। वह अधिष्ठाता ही आत्मा है। शरीर सावयव और सादि है, अतः घट की तरह इसका भी कोई कर्ता है। जिसका कोई कर्ता नहीं है, उसका निश्चित आकार नहीं होता। शरीर का कर्ता आत्मा है। विषय और इन्द्रियों के मध्य कोई ऐसा तत्व अवश्य होना चाहिए जो ग्राहक हो, और वह आत्मा है।'
जिस प्रकार भोजन, वस्त्र आदि का कोई भोक्ता अवश्य होता है, उसी प्रकार शरीर का भी कोई भोक्ता होना चाहिये, और वह भोक्ता आत्मा ही हो सकता है।'
इसी प्रकार शरीरादि के 'संघातरूप में,' संशय के रूप में, अजीव के प्रतिपक्षी के रूप में, आत्मा का अस्तित्व है।
अन्य आचार्यों के अनुसार आत्मसिद्धिः-श्वासोच्छ्वास के रूप में एवं प्राणापान के कारण आत्मा का अस्तित्व है।
आत्मा का प्रत्यक्ष होता है। इन्द्रियनिरपेक्ष आत्मजन्य केवलज्ञान रूप सकल प्रत्यक्ष के द्वारा शुद्धात्मा का प्रत्यक्ष होता है। देश प्रत्यक्ष-अवधि और मनः पर्यय के द्वारा कर्म- नोकर्म से युक्त आत्मा का प्रत्यक्ष होता है।"
इन्द्रियों से प्राप्त विभिन्न ज्ञानों में आत्मा ही एकसूत्रता स्थापित करती 1. वही 49.127 2. गणधरवाद:-1560.62 3. वही 1567 4. वही-1567. 5. वही 15684 6. वही 1569. 7. वही 1569. 8. वही 1571 9. रा.व. 5.19.38 पृ. 473 10. स्याद्वादमं. 17.174. 11. रा.वा. 28.18.122.
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