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समुच्चय की टीका में गुणरत्नसूरि ने इसके प्रत्युत्तर प्रस्तुत किये हैं। गुणरलसूरि ने आत्मा को निम्नलिखित तर्कों से प्रमाणित किया है।
गुणरत्नसूरि के अनुसार आत्मा का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि ज्ञान गुण का प्रत्यक्ष होता है, अतः आत्मा को प्रत्यक्षसिद्ध मानना चाहिये।' स्मृति, जिज्ञासा, आकांक्षा, घूमने आदि की इच्छा इत्यादि आत्मा के गुणों का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से अनुभव होता है। चूँकि गुण प्रत्यक्ष है, अत: गुणी भी प्रत्यक्ष है।
जैसा कि चार्वाक दर्शन मानता है कि भूतचतुष्टय के मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न होता है, तो उनका मिश्रण करने वाला कोई तत्व भी तो होना चाहिए, और वह आत्मा के अतिरिक्त कौन हो सकता है? अगर कोई तत्व नहीं है तो घट, पट आदि जितने पदार्थ हैं उन सभी को चैतन्ययुक्त होना चाहिए क्योंकि भूतों की सत्ता तो सर्वत्र है, परंतु प्रत्येक भूतचतुष्टय युक्त पदार्थ चैतन्य नहीं बनता। अतः स्पष्ट है कि चैतन्य भूत का नहीं, अपितु आत्मा का लक्षण है। इसके अतिरिक्त निम्न लिखित तर्कों से भी आत्मा सिद्ध होती है। (1) ज्ञान प्राप्ति के माध्यम कान, मुँह आदि उपकरण किसी से प्रेरित होकर
ही अपनी क्रियाएँ संपन्न करते हैं। इन इन्द्रिय रूपी गवाक्षों से ज्ञान का ग्राहक आत्मा ही है।'
आचार्य पूज्यपाद ने भी आत्मा का अस्तित्व इसी प्रकार से प्रतिपादित किया है-जिस प्रकार यंत्र प्रतिमा की चेष्टाएँ अपने प्रयोक्ता का ज्ञान कराती हैं वैसे ही प्राण, अपान आदि क्रियाएँ भी आत्मा का ज्ञान कराती है। (2) यह संसरणशील शरीर किसी की प्रेरणा से ही चल सकता है, जैसे
रथ सारथी की इच्छानुसार चलता है। खाने की या पीने की इच्छा होने पर तदनुसार प्रवृत्ति करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रवृत्ति
कराने वाला कोई और है, और वही आत्मा है। (3) इस शरीर को इस आकृति में किसी ने बनाया है जैसे घट का निर्माता
कुम्हार है, वैसे ही समस्त कार्यों का कोई उत्पादक है। शरीर का जो 1. षड्दर्शन समु. टी. 49.120 2. वही 49.119 3. वही 49.123 4. “यथा यंत्रप्रतिमाचेष्टितं...साधयति' वस.सि. 5.19.563 5. वही, प्रशस्त. भा.पृ. 69, प्रश. व्यो.पृ. 402, न्यायकुसु. पृ. 349
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