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________________ उपादान होता है, परंतु कथंचित् अशाश्वत और कथंचित् शाश्वत ही द्रव्य का उपादान कारण हो सकता है।' उपादान में कारणकार्यभाव विद्यमान रहता है। इसे स्वामी कार्तिकेय ने स्पष्ट किया है कि पूर्वपरिणाम से युक्त द्रव्य कारणरूप से प्रवर्तित होता है और उत्तरपरिणाम से युक्त वही द्रव्य नियम से कार्य होता है। स्वामी विद्यानंद के अनुसार उपादान का पूर्व आकृति से विनाश कार्य का उत्पाद है, क्योंकि ये दोनों एक हेतु से हैं, ऐसा नियम है।' स्वामी पूज्यपाद के अनुसार जिस प्रकार गति क्रिया का निमित्त धर्मास्तिकाय है उसी प्रकार अन्य सब बाह्य पदार्थ निमित्त मात्र होते हैं। कोई अज्ञ विज्ञता को प्राप्त नहीं होता और विज्ञ अज्ञता को प्राप्त नहीं करता, मात्र उपादान की योग्यता के अनुसार बाह्य निमित्त सहायक होते हैं। कार्तिकेय ने भी इसी मान्यता का समर्थन किया है। सभी द्रव्य अपनेअपने परिणमन के उपादान (मुख्य) कारण हैं अन्य बाह्य द्रव्य तो मात्र निमित्त हैं। प्रत्येक सत् या द्रव्य पूर्वपर्याय को छोड़कर प्रतिक्षण उत्तरपर्याय को धारण करता है। यह परिवर्तन सदृश या विसदृश, दोनों प्रकार का होता है। धर्म, अधर्म, आकाश, काल और शुद्ध जीवद्रव्य के परिणमन सदा एक से होते हैं। इनमें वैभाविक शक्ति नहीं है। शुद्ध जीव में वैभाविक शक्ति का सदा स्वाभाविक परिणमन होता है। इस पर निमित्त का कोई प्रभाव नहीं होता। संसारीजीव और पुद्गल में वैभाविक शक्ति है। जिस-जिस प्रकार की सामग्री उपलब्ध होती है वैसे ही ये बदलते जाते हैं। यद्यपि सर्वथा असद्भत परिवर्तन लाने की क्षमता नैमित्तिक कारण में नहीं है, जैसे लाख प्रयत्न करने पर भी पत्थर से तैल नहीं मिलता। परिणाम का अर्थ भी यही है। 1. यत् स्वरूपं ..माश्वतं यथा तं। जैन त. मी. में पृ. 47 में उद्धृत 2. पुचपरिणामजुत्तं...णियमा का.प्रे. 230. 3. जैन त. मी पृ. 49 पर उद्धृत। "नाज्ञोविज्ञत्वमायाति धर्मास्तिकायवत्।" इष्टोपदेश 35. 4. तद्भावः परिणामः त.सू. 5.42 60 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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