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में प्रवेश भी करते हैं तथा एक ही क्षेत्र में रहते हैं।'
प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। दो द्रव्य मिलकर एक पर्याय नहीं बनाते और न दो द्रव्यों की एक पर्याय बनती है। द्रव्य अनेक हैं और अनेक ही रहते हैं।'
द्रव्य स्वयं कर्ता, कर्म, और क्रिया तीनों है। द्रव्य पर्यायमय बनकर परिणमन करता है। जो परिणमन हआ वही द्रव्य का कर्म है और परिणति ही क्रिया है, अर्थात् द्रव्य ही कर्ता है, क्रिया तथा कर्म का स्वामी भी वही है।
___ कर्ता, क्रिया, और कर्म, भिन्न प्रतीत अवश्य होते हैं, परंतु इनकी सत्ता भिन्न नहीं है। स्वयं की पर्याय का स्वामी स्वयं है।'
निजवस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर ही है। परद्रव्य आत्मा नहीं होता और आत्मा पर द्रव्य नहीं होता।
समस्त पदार्थ स्वभाव से ही अपने स्वरूप में स्थित हैं। वे कभी अन्य पदार्थों से अन्यथा नहीं किये जा सकते। एवं भूतनय की दृष्टि से देखा जाये तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं। इनमें आधार आधेयभाव नहीं है। व्यवहार नय से ही परस्पर आधारआधेय भाव की कल्पना होती है। जैसे वायु का आधार आकाश, जल का वायु और पृथ्वी का आधार जल माना जाता है।'
सत् सप्रतिपक्ष है:-जैन दर्शन सत् का स्वरूप विरोधी युगल से प्रतिपादित करता है। सत् की सत्ता परिवर्तन के मध्य शाश्वत है। न तो सर्वथा सत् है और न सर्वथा असत् अपितु कथंचित् सत् भी है असत् भी। प्रतिपक्ष के अभाव में सत् की व्याख्या संभव नहीं है। सत्ता उत्पाद, व्यय ध्रौव्यात्मक, एक, सर्वपदार्थस्थित सविश्वरूप अनंतपर्यायमय और प्रतिपक्ष है।
वस्तु कथंचित् असत् है, सर्वथा नहीं। इसी प्रकार अपेक्षाभेद से वस्तु 1. अवरोपरं विमिस्स............ परसहावे गच्छंति न.च.वृ. 7 2. "नोभौ परिणामतः...... मनेकमेव सदा।” अध्यात्म अमृत कलश 53... 3. वहीं 51 4. वही 52 5. अपा अणु जि परू जि, परू अप्पा परु जिण होई। परुणि कयाइ वि अप्पू णियमें पमणेहि जोई।
परमात्म प्रकाश 1.67 6. सर्वे भावाः स्वभावेन स्वस्वभावव्यवस्थिताः 1 न शक्यतेन्यथा कर्तुं ते परेण कदाचन। प.ध.पू. 461 7. रा.वा. 5.12.454 8. पंचास्तिकाय 8. एवं सभाष्य तत्वार्था पृ. 282
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