________________
"जिस प्रकार अंशीवृक्ष के बीज, अंकुर, वृक्षत्व स्वरूप तीन अंश एक साथ दिखायी देते हैं, वैसे ही द्रव्य के व्यय, उत्पाद और ध्रौव्य स्वरूप निजधर्मों के द्वारा अवलंबित एक साथ ही प्रतीत होते हैं। अगर द्रव्य को उत्पाद व्यय और ध्रौव्य रूप से भिन्न माना जाये तो सर्वत्र विप्लव हो जायेगा।
यदि द्रव्य का व्यय ही मानें तो सारा संसार शून्य हो जायेगा। अगर द्रव्य का उत्पाद ही माने तो द्रव्य में अनंतता आ जायेगी। अगर द्रव्य को धौव्य ही माने तो भावों का अभाव होने से क्रमशः द्रव्य का अभाव हो जायेगा।'
जो गुण हैं वे द्रव्य नहीं है और जो द्रव्य हैं वे गुण नहीं है। अतः द्रव्य और गुण भिन्न है। उत्पाद व्यय रूप भेद पदार्थों का धर्म है, वह धर्म पदार्थों से कथंचित् भिन्न है कथंचित् अभिन्न है। धर्म और धर्मी में सर्वथा भेद या सर्वथा अभेद नहीं पाया जाता।'
एक ही व्यक्ति में संबंधों की भिन्नता पायी जाती है, जैसे एक ही व्यक्ति पिता, पुत्र, भानजा, और भाई आदि संबंधों से ज्ञापित होता है। संबंधों की भिन्नता ने व्यक्ति को भिन्न-भिन्न नहीं बनाया, उसी प्रकार इन्द्रियग्राह्य रूप, रस आदि पर्यायों में द्रव्य का एकत्व अवगत होता है। वैशेषिक द्रव्य और गुण को भिन्न पदार्थों के रूप में मान्यता देते हैं। भिन्न मान्यता में किन दोषों के आगमन का द्वार खुलता है, जैन दार्शनिक इसे स्पष्ट करते हैं।
यदि द्रव्य का लक्षण स्थिति और गुण का लक्षण उत्पत्ति का विनाश मान लें तो ये लक्षण क्रमशः द्रव्य एवं गुण में ही घटित होंगे न कि संपूर्ण सत् में। द्रव्य से भिन्न गुण या तो मूर्त होंगे या अमूर्त। अगर गुणों को इन्द्रियग्राह्य और मूर्त मानेंगे तो परमाणु नहीं रहेंगे, क्योंकि परमाणु अतीन्द्रिय होते हैं। अगर अमूर्त होंगे तो इन्द्रियग्राह्य नहीं रहेंगे।'
यहाँ यह शंका स्वाभाविक है कि जब उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों परस्पर भिन्न हैं तो इन्हें त्रयात्मक रूप वस्तु नहीं कहा जा सकता और अभिन्न 1. यथा किलाशिनः पादपस्य बीजाङ्गुरपादपत्व...द्रव्यस्याभावः प्र.सा.त.प्र.पृ. 1011 2. यद्दव्यं भवति न तद्गुणा भवन्ति...न द्रव्यं भवतीति प्र.सा.त. प्र.पृ. 130. 3. भेदो हि पदार्थानां धर्म...भिन्नोभिन्नश्च स्याद्वादरला. 1.16.203. 4. पिउपुत्तणतुभब्वय...विसेसणं लहइ स.त. 3.17.18 5. दब्बस्स ठिई जम्म...अमुत्तेसु अग्गहणं स.त. 3.23.24
37
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org