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पड़ेगा।' अतः एकांतवाद में अर्थक्रिया संभव ही नहीं है। इसी प्रकार क्षणिकवाद में भी अर्थ क्रिया संभव नहीं, क्योंकि वहाँ हिंसा का संकल्प करने वाला अलग है, हिंसा करने वाला कोई दूसरा है और हिंसा का परिणाम भोगने वाला कोई तीसरा ही है।
हम हिंसक किसे कहें? क्योंकि क्षणिकवाद के अनुसार हिंसा करने वाला हिंसक नहीं हो सकता। उसका अस्तित्व तो दूसरे क्षण ही विलीन हो जाता है। इस प्रकार पदार्थों का निरन्वय विनाश मानने से एक को कर्ता और दूसरे को भोक्ता मानना पड़ेगा। इसका समाधान क्षणिकवादियों ने इस प्रकार किया है- "जिस प्रकार कपास के बीज में लाल रंग लगाने से बीज का रंग भी लाल हो जाता है उसी प्रकार अवस्था संतान में कर्मवासना का फल मिलता है।"
परंतु जैन दर्शन इस मान्यता का खंडन करता है। एक क्षणवर्ती वस्तु को दूसरे क्षण से जोड़ने वाला कोई संबंध नहीं है। दोनों क्षणों को परस्पर जोड़ने वाले के अभाव में दोनों का संबंध संभव नहीं है। दोनों को जोड़ने वाली कड़ी चाहिये। जैन दर्शन में बौद्धों जैसा उत्पाद और विनाश भी है और साथ ही दोनों को जोड़ने वाली कड़ी जो ध्रुव कहलाती है, भी विद्यमान है।
जैन दर्शन के 'ध्रुव' की कूटस्थ नित्य ब्रह्मवादियों के नित्य से एवं बौद्धों के अनित्य से समानता है, परंतु यह समानता कथंचित् ही है सर्वथा नहीं, क्योंकि जैन दर्शन पदार्थ को कथंचित् नित्य एवं कथंचित् अनित्य मानता है। जैन दर्शन के अनुसार दीपक से लेकर आकाश तक के सारे पदार्थ नित्यानित्य स्वभाव युक्त हैं।
वैशेषिक कुछ पदार्थों को नित्य और कुछ पदार्थों को अनित्य मानते हैं। अतः वे अर्ध बौद्ध भी कहे जाते हैं। शंकराचार्य ने अर्धबौद्ध कहकर संबोधित किया है।
ऊर्ध्वता एवं तिर्यगंश की अपेक्षा द्रव्यः-अभेद दृष्टिकोण को सामान्य एवं 1. स्याद्वाद. 27.236 2. हिनस्त्यनभिसंधातृ-चित्तं बद्धं न मुच्यते" आ.मी. 3.51 3. यस्मिन्नेव हि सन्ताने-रक्तता यथा। उदधृतेयम् स्याद्वाद 27.238 4. अन्ययोगव्य.5. 5. प्रो. ए.बी. ध्रुवः स्याद्वादमंजरी पृ. 54.
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