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आदि जो भाव हैं; जिनमें पुरुषप्रयत्न की आवश्यकता नहीं हैं, वे वैस्रसिक में औपशमिक हैं और जो ज्ञान, शील आदि गुरु के निमित्त से होते हैं, वे प्रयोगज हैं। कुम्हार के द्वारा अचेतन मिट्टी को घट आदि का आकार देना प्रयोगज है। इन्द्रधनुष, बादल आदि स्वाभाविक हैं।'
इन्हें क्रमशः स्वभाव पर्याय एवं विभाव पर्याय भी कहते हैं। अन्य के सहयोग के अभाव में होने वाले परिणमन को स्वभाव पर्याय एवं निमित्त से होने वाले परिणमन को विभाव पर्याय कहा जाता है। जीव की स्वभाव पर्यायें अनन्तज्ञान आदि हैं। इसी प्रकार पुद्गल की स्वभाव पर्यायें रूप आदि हैं।
स्वभावपर्याय सभी द्रव्यों में पायी जाती है, परंतु विभावपर्याय मात्र जीव और पुद्गल में ही पायी जाती है। जीव की विभावपर्यायें नारक देव आदि एवं पुद्गल की विभाव पर्यायें स्कंधरूप (स्थूल रूप) आदि हैं।
जिस प्रकार द्रव्य में पर्याय अनिवार्य हैं, उसी प्रकार गुण भी उतने ही आवश्यक हैं। "द्रव्य रूप से तो द्रव्य सभी एक (समान) ही हैं। परंतु गुण भेद के कारण ही द्रव्यभेद है। पर्याय तो विनाशशील है, परंतु गुण ध्रुव है। जैसे अंगूठी, हार आदि बनने पर स्वर्ण में आकृति परिवर्तन तो हो गया, परंतु स्वर्ण का पीतगुण स्थायी ही रहा। इसे सदृश परिणमन भी कहते हैं।'
“अस्तित्त्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व अगुरुलघुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, प्रदेशत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व, इस प्रकार से ये दस सामान्य गुण हैं। प्रत्येक द्रव्य में आठ सामान्य गुण पाये जाते हैं, जैसे जीव में मूर्तत्व और अचेतनत्व का अभाव है और पुद्गल में अमूर्तत्व एवं चेतनत्व का अभाव है।'
ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, गंध, वर्ण, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहन हेतुत्व, वर्तनहेतुत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व और मूर्तत्व, अमूर्तत्व ये सोलह द्रव्यों के विशेष गुण हैं। अंत के चार गुणों को स्वजाति की अपेक्षा सामान्य और विजाति की अपेक्षा विशेष गुण कहा जाता है। 1. द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन... परिणामो वैनसिक : त. वा. 5.22. 2. यः सर्वेषां द्रव्याणां जीवपुद्गलादीनां... उत्पादयतीति का. प्रे. टी. 216. 3. सव्वाणं दव्याणं... भिण्णाणि का. प्रे. 10.236. 4. सरिसो जो... गुणो सोहि का. प्रे. 10.241. 5. का. प्रे. टी. 241. 6. का. प्रे. टीका 10: 241.
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