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________________ द्रव्य का लक्षण-गुण पर्याययुक्त है:-गुण और पर्याय युक्त को ही द्रव्य संज्ञा से अभिहित किया है।' नियम सार में भी द्रव्य की यही व्याख्या है। इसी व्याख्या से मिलती जुलती व्याख्या प्रवचन सार एवं न्यायबिन्दु में उपलब्ध होती है।' गुण और पर्याय के साथ सत्, जिसे द्रव्य कहते हैं, का तन्मयत्व है।' द्रव्य गुण और पर्याय ये तीनों एक साथ पाये जाते हैं, इन तीनों में सह अस्तित्व है। तीनों में से एक भी विभक्त नहीं होता। द्रव्य का अभाव गुण का भी अभाव कर देगा और गुण के अभाव में द्रव्य का भी अस्तित्व नहीं होगा; द्रव्य और गुण अव्यतिरिक्त हैं। इसी प्रकार से पर्याय के अभाव में द्रव्य नहीं हो सकता और द्रव्य के अभाव में पर्याय नहीं; द्रव्य और पर्याय भी अनन्यभूत है। जो अन्वयि हैं वे गुण हैं जो और व्यतिरेकी हैं, वे पर्याय हैं।' गुण और पर्याय को और ज्यादा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि द्रव्य में भेद करने वाले को गुण (अन्वयी) और द्रव्य के विकार को पर्याय कहते हैं। गुण और पर्याय को उदाहरण सहित इस प्रकार समझाया है, "ज्ञान आदि गुणों द्वारा ही जीव अजीव से भिन्न प्रतीत होता है। जीव में घटज्ञान, पर्टज्ञान, क्रोध, मान आदि पाये जाते हैं। वे जीव द्रव्य की पर्यायें हैं।' गुण और पर्याय युक्त समूह को तो द्रव्य सभी कहते हैं। परंतु कहीं-कहीं मात्र गुणों के समुदाय को भी द्रव्य कहते हैं; केवल इतने से भी कोई आचार्य द्रव्य का लक्षण कहते हैं।" सहभावी और क्रममावी की अपेक्षा गुण-पर्यायः-द्रव्य में गुण सहवर्ती एवं 1. "गुणपर्यायवत् द्रव्यम्" त.सू. 5.38. 2. नानागुणपर्याय: संयुक्ताः नि.सा. 9. 3. प्र.सा. 95, न्यायबि. 1.115. 428. 4. जेसिं अत्थि...विविहहि" पं. का. 10. 5. दब्बेण विणा हवदि तम्हा पं. का. 13. 6. पज्जयविजुदं... अणण्णभूदं पं. का. 12. 7. अन्वयिनोगुणा व्यतिरेकिण: पर्यायाः स. सि. 5.38.600. 8. गुण इदि दवविहाणं... अजुपदसिद्ध हवे णिच्चं" सं. सि. पृ. 237 पर उद्धृत. 9. द्रव्यं द्रव्यांतराद् येन विशिष्यते स गुणः, ज्ञानादयो जीवस्य गुणाः... तेषां विकारा... घटज्ञानं, पटज्ञानं, कोधो... इत्येवमादये:" स. सि. 5.38.600. 10. "गुणपर्ययसमुदायो द्रव्यं पुनरस्य भवति वाक्यार्थः" प. ध. पृ. 72. 11. गुण समुदायो द्रव्यं लक्षणमेतावताप्युशंति बुधाः प. ध. पू. 733. सहक्रम प्रवृत्तगुण पर्याय पं. का.टी.11. 23 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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