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से विशिष्ट मदशक्ति उत्पन्न होती है, उसी तरह भूत चतुष्टय के विशिष्ट संयोग से चैतन्य शक्ति उत्पन्न होती है।
भूत और भविष्य में इनका विश्वास नहीं है। इनकी प्रसिद्ध उक्ति है“यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।"
___ इस प्रकार लोक (सृष्टि) के संबंध में अनेकों मत हैं। इसके विस्तृत विवेचन के लिये हमें हरिभद्रसूरि कृत 'लोकतत्व निरूपण' ग्रन्थ देखना चाहिये। अब हम जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि के संबंध में विवेचन पर दृष्टिपात करें।
द्रव्य व सृष्टि के संबंध में जैन दर्शन की मान्यताः-जैन दार्शनिकों ने जीवन से संबंधित समस्त पहलुओं पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट किया है। चूंकि मानव अपनी समस्त क्रियाएँ संसार में ही सम्पन्न करता है तो इस विषय पर जैन दार्शनिक मूक कैसे रह सकते हैं। भगवान महावीर के परम विनम्र शिष्य, "रोह" ने समाधान की प्रार्थना करते हुए महावीर से निवेदन किया कि "पहले लोक हुआ अथवा अलोक।"
भगवान ने उसकी जिज्ञासा को उपशांत करते हुए कहा-रोह! लोक और अलोक, ये दोनों अनादि हैं। इनमें पौर्वापर्य संबंध संभव नहीं है। इसके लिए उन्होंने अण्डे और मुर्गी का उदाहरण भी दिया' जहाँ पर हम रहते हैं वह लोक है। लोक में आकाश, धर्म, अधर्म, काल पुद्गल और जीव की सहस्थिति ही है।
द्रव्य से परिपूर्ण इस सृष्टि को जैन दर्शन में लोक कहा जाता है। महावीर ने इस संपूर्ण सृष्टि को छः द्रव्यों से परिव्याप्त बताया है। जैन सिद्धांतों के प्रकाश में अभेदात्मक अपेक्षा से इस सृष्टि को द्रव्यमय एवं भेदात्मक दृष्टिकोण से षड्द्रव्यमय कहा जा सकता है।'
यह विश्व इस अनंतानंत “सत्" का विराट् आगर है और अकृत्रिम है; किसी व्यक्ति विशेष या ईश्वर द्वारा रचित नहीं है। माध्यमिकों के अनुसार, 1. भगवती 1.6 2. जीवा चेव अजीवाय, अस लोगे वियहिए" उत्तरा. 36.2 3. धर्माधर्माकाश.... दित्यादिर्यथा। प्रमाणन. 7.20 4. लोगो अकिट्टिमो खलु" मूलाधार 712 .
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