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________________ भारतीय दर्शनों के संदर्भ में जैन दर्शन की द्रव्य-अवधारणा जैन दर्शन भारतीय दर्शनों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इस कल्पार्द्ध के जैन शासन के आद्य प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव माने जाते हैं। वर्तमान समय में चौबीसवें एवं अन्तिम तीर्थंकर महावीर का जिनशासन प्रवर्तित हो रहा है। जैन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता है- उसकी अनेकान्तमयी उदार दृष्टि। जहाँ सभी दर्शन अपने वाद की स्थापना के लिये संपूर्ण शक्ति लगाते हैं, वहीं जैन दर्शन उन दर्शनों में कथञ्चित् सत्य पक्ष ढूँढ़ता है। जैन दर्शन की सबसे बड़ी मौलिक देन है, स्याद्वाद और अनेकांतवाद एवं आचार की पवित्रता। अनेकान्तवाद की स्थापना की गहराई में भी इसी अहिंसा के दर्शन होते हैं। जैन तीर्थंकरों की अहिंसा मात्र कायिक ही नहीं, अपितु मानसिक और वैचारिक भी है। मन से किसी का अहित चिंतन या शब्दों में किसी को अनुचित एवं कटु कहना भी हिंसा ही है। __जैन दर्शन की उत्कृष्टता का एक अन्य कारण यह भी है कि यह किसी एक आत्मा विशेष को परमात्मा की संज्ञा देकर कर्तृत्व से नहीं जोड़ता, अपितु समस्त आत्माओं को परमात्मा की तुल्यता प्रदान करता है। आत्मा और परमात्मा का अंतर यही है कि एक की शक्ति प्रकट है और दूसरे की अप्रकट। जिसकी शक्ति प्रकट हो चुकी है वह परमात्मा है, जिसकी शक्ति प्रकट नहीं हुई है वह भी उसी शक्ति का स्वामी है और प्रबल पुरुषार्थ द्वारा उसे प्रकट कर वह भी परमात्मा बन सकता है। उस परमात्मा द्वारा प्ररूपित जैन विचार धर्म भी है और दर्शन भी। आचार की सूक्ष्मतम व्याख्या के कारण यह धर्म है और अन्य विचार पद्धति Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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