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जिस द्रव्याक्षरत्ववाद की स्थापना 1989 में Lowoisier (लाओजियर) वैज्ञानिक ने की, उसकी तुलना अगर हम जैन दर्शन के द्रव्य स्वरूप से करें तो कोई अनुचित नहीं होगा। क्योंकि इस सिद्धांत के अनुसार भी अनंत विश्व में द्रव्य का परिणमन होता है, पर द्रव्य का विनाश कभी नहीं होता। कोयला जलकर राख हुआ। हमने व्यवहार की भाषा में कह दिया- कोयला जल कर नष्ट हो गया परंतु गहराई में वह नष्ट नहीं हुआ, अपितु वायुमंडल के ऑक्सीजन के अंश के साथ मिलकर कार्वोनिक एसिड गेस के रूप में परिवर्तित
हो गयौ।
इसे जैन दर्शन परिणामी नित्यवाद भी कहता है। इसी परिणामी नित्यवाद की आधारशिला से जैन दर्शन के चिंतन का महल तैयार हुआ है।
सांख्य भी परिणमन स्वीकार करता है, पर मात्र प्रकृति का, पुरुष का नहीं। नैयायिक, वैशेषिक आत्मा को नित्य तथा घट पट को अनित्य मानते हैं, परंतु जैन दर्शन तो संपूर्ण द्रव्य मात्र का प्रतिक्षण परिणमन स्वीकार करता है।
अगर हम इसे यों कहें कि जैन दर्शन कहीं वस्तु में स्वभाव और विभाव दोनों की स्वीकृति देता है। स्वभाव पर निरपेक्ष है और विभाव परसापेक्ष। आत्मा जब परसापेक्ष है अर्थात् विभाव दशा में हैं तब तक संसार है, ज्योहि पर निरपेक्ष बना वह शुद्ध स्वरूपी बनकर अंतिम मंजिल प्राप्त कर लेता है।
. आत्मा के स्वतंत्र स्वरूप की जो व्याख्या जैन दर्शन प्रस्तुत कर पाया है, वह किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं होती क्योंकि उपनिषद ने एक ही ब्रह्म की कल्पना की है तो सांख्य ने मात्र पुरुष को भोक्ता के रूप में ही स्वीकृति दी है और बौद्ध आत्मा को क्षणिक मानता है और इन सभी एकांतवादी मान्यताओं के कारण अनेक जिज्ञासाएँ उभरती हैं, परंतु समाधान का अभाव रहता है।
जैन दर्शन ज्ञान और दर्शन दोनों से युक्त को ही आत्मा मानता है, जबकि वैशेषिक की मान्यता है कि ज्ञान आगंतुक गुण है और आत्मा से सर्वथा भिन्न है। ज्ञान और आत्मा का संबंध समवाय से बनता है। आत्मा स्वयं जड है। उसके अनुसार अगर ज्ञान और आत्मा को एक ही माना जाए तो मुक्ति में जब आत्मा के विशेष गुण बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयल, धर्म, अधर्म,
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