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________________ उपसंहार जैन दर्शन के सभी सिद्धांतों में स्याद्वाद शैली स्पष्ट नजर आती है। प्रश्नों को स्याद्वाद के अन्तर्गत समाहित करने के प्रयास में जैन दर्शन को यद्यपि संशयवाद के आरोपों से घेरा गया, पर गहराई में जाकर अगर स्याद्वाद को समझें तो यह प्रांति निरर्थक और निर्मूल साबित होगी। वस्तु तत्व की मीमांसा भी जैन दर्शन में भेदाभेद की अपेक्षा से हुई है। हम अपने व्यवहार में भी पदार्थ का एकांत स्वरूप स्वीकार नहीं कर सकते। पदार्थ का वास्तविक स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है कि अगर उसके अन्य धर्मों का सर्वथा विच्छेद करके मात्र एक ही धर्म को मुख्य और सत्य मान लें तो व्यवहार भी खंडहर हो जाता है। जैन दर्शन के सामने भी यह कठिनाई खड़ी हो जाती अगर वह पदार्थ का एकांगी स्वरूप स्वीकार करता क्योंकि एकांगी स्वभाव में या तो अनात्मवाद रहेगा या शाश्वतवाद। पदार्थ मात्र शाश्वत है तो चारों ओर परिवर्तन क्यों दिख रहा है? हमारे स्वयं के अंतर्मन में पनपते, बदलते भावों को हम महसूस करते हैं। बाह्य जगत में हमारे अत्यंत समीप शरीर की अवस्थाओं में प्रतिपल परिवर्तन होता है, फिर भी शरीर के परिवर्तन में कोई ऐसा शाश्वत और अकम्प तत्त्व अवश्य है जिसके आधार पर परिवर्तन की संभाव्यता है और यही अशाश्वत के मध्य शाश्वत जैन दर्शन का वस्तु स्वरूप है जिसे "तत्त्व क्या है? गौतम स्वामी के प्रश्न पर महावीर प्रभु ने "उवगमेई वा, विगमेई वा धुवेई वा" कहा था जो दर्शन में त्रिपदी के नाम से पहचाना जाता है। मैंने अपने इस शोध प्रबंध में इसी उत्पन्न, विनाश और धौव्य के स्वरूप और लक्षण को विवेचित करने का प्रयास किया है। 208 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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