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________________ हुई वहाँ पहुँची है। अब हम अनुमान लगायें कि उस तरंग को टेलीफोन के तार के एक मीटर या मिलीमीटर को पार करने में कितना समय लगा होगा? हम संपूर्णतः अनुमान लगा सकें या नहीं, परंतु तरंग को एक मिलीमीटर तार पार करने में समय तो लगा ही है। जैन दर्शन में वर्णित समय इससे भी असंख्यात गुणा अधिक सूक्ष्म है। इस प्रकार काल संबंधी चर्चा में हमने देखा कि यद्यपि जैन दार्शनिकों में काल के संबंध में दो मत चलते हैं- एक मत काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने वाला और दूसरा काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानने वाला, फिर भी ये दोनों विरोधी नहीं है। भगवती, उत्तराध्ययन, प्रज्ञापना' आदि में काल संबंधी ये दोनों मान्यताएं है। आचार्य उमास्वाति, जिनभद्रगणि, हरिभद्रसूरि आदि ने भी दोनों ही मत स्वीकार किये हैं। उपरोक्त दोनों मत परस्पर अविरोधी हैं क्योंकि सापेक्ष है। निश्चय नय से उसे जीव और अजीव की पर्याय मात्र मानने से ही सभी व्यवहार सम्पन्न हो सकते हैं। व्यवहार दृष्टि से ही उसे स्वतंत्र और पृथक् द्रव्य माना है। पुद्गलास्तिकायः-अब हम चौथे अध्याय के अंतिम उपभेद पुद्गलास्तिकाय की चर्चा करेंगे। पुद्गल क्या है और उसका स्वरूप क्या है? इसका विस्तृत विवेचन हम यहाँ करने का प्रयास करेंगे। षड्द्रव्यों में से एक पुद्गल ही ऐसा है जो रूपी या मूर्त है। संसार भ्रमण का मुख्य कारण शुद्धस्वरुपी आत्मा की पुद्गल से संगति होना है। विज्ञान ने पुद्गल को 'मेटर' कहकर ऊर्जा का मूल स्रोत स्वीकार किया है। इस लोक में मुख्य दो ही पदार्थ है जिनके द्वारा यह सृष्टि निर्मित हैजीव और पुदगल। अवशिष्ट ये चारों धर्म, अधर्म आकाश और काल; सहयोग 1. भगवती 25.4.734 2. उत्तराध्ययन 28.7.8 3. प्रज्ञापना 1.3 4. तत्वार्यसूत्र 5.38,39 पर सिद्धसेन की भाष्य व्याख्या 5. विशेषावश्यकभाष्य 926 एवं 2068 6. धर्मसंग्रहणी गाथा 32 की मलयगिरि टीका - 184 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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