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________________ पाँच सौ छब्बीस योजन और एक योजन का छह बटा उन्नीस भाग है।' इस भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के छह समयों की अपेक्षा वृद्धि और ह्रास होता रहता है। (इसका विवेचन काल के अन्तर्गत किया जायेगा।) इसका तात्पर्य यह नहीं कि क्षेत्र की न्यूनाधिकता होती है, अपितु इस क्षेत्र के निवासियों की आयु, अनुभव, प्रमाण आदि की अपेक्षा से हानि वृद्धि होती है। ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोकः-ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक पन्द्रह प्रकार का होता है। सौधर्मकल्प ऊर्ध्वलोक से लेकर अच्युतकल्प क्षेत्रलोक, अवेयक, अनुत्तर विमान, एवं ईषत्प्राग्भारपृथ्वी ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक पर्यंत ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक होता है। प्रशमरति में लोक का विवेचन इस प्रकार उपलब्ध होता है। यह लोक पुरुष है। अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर दो पैर फैलाकर खड़े पुरुषाकार की तरह है।' लोक को कुल चौदह रज्जु प्रमाण बताया है। सुमेरू पर्वत के तल से नीचे सात रज्जु प्रमाण अधोलोक बताया है और तल के ऊपर से सात रज्जु ऊर्ध्वलोक बताकर कुल चौदह रज्जु प्रमाण लोक बताया है। मध्यलोक की ऊंचाई को ऊर्ध्वलोक में शामिल किया है। कयोंकि सात रज्जु प्रमाण के क्षेत्रफल में एक लाख चालीस योजन का क्षेत्रफल ठीक उसी प्रकार महत्व रखता है, जैसे पर्वत की तुलना में राई।' अब हम यह समझें कि रज्जु का माप क्या है? क्योंकि यह भी जैन दर्शन का अपना विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है। रज्जु से तात्पर्य रस्सी नहीं है। अपितु तीन करोड़ इक्यासी लाख सत्ताईस हजार नौ सौ सत्तर मण वजन का एक भार और ऐसे हजार भार का अर्थात् अड़तीस अरब बारह करोड़ उन्यासी लाख सत्तर हजार मण वजन का एक लोहे का गोला छ: माह, छः दिन, छ: प्रहर और छह घड़ी में जितनी दूरी तय करे, उतनी दूरी को एक रज्जु कहते हैं।' संस्थान के प्रकार:-जिस प्रकार से लोकरचना का विश्लेषण किया उसी 1. त.सू. 3.24 (दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य) 2. भगवती 11.10.6 3. प्रशमरति गा. 210. 4. कातिकेयानुप्रेक्षा गा. 127. 5. गणितानुयोग संपादकीय पृ. 6. 157 ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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