________________
सर्वगत है, अत: उसे ही गति और स्थिति में सहायक मान लेना चाहिये। अलग से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को मानने की क्या तुक है? इसका समाधान है कि आकाश धर्म और अधर्म सभी का आधार है। जैसे नगर समस्त भवनों का आधार है। आकाश का उपकार अवगाहन निश्चित है तो उसके अन्य उपकार नहीं माने जा सकते, अन्यथा तरलता और उष्ण गुण भी पृथ्वी के मान लेने चाहिये। अगर आकाश को गति और स्थिति का सहायक माना जाय तो जीव और पुद्गल की गति अलोकाकाश में भी होनी चाहिए और तब लोक और अलोक की विभाजन रेखा ही समाप्त हो जायेगी। लोक से भिन्न अलोक का होना तो अनिवार्य हैं, क्योंकि वह "अब्राह्मण" की तरह नज्ञयुक्त सार्थक पद है।
जिस प्रकार मछली की गति जल में ही संभव है, जल रहित पृथ्वी पर नहीं, उसी तरह आकाश की उपस्थिति होने पर भी धर्म अधर्म हो तो जीव और पुद्गल की गति और स्थिति हो सकती है।'
यदि आकाश से ही धर्माधर्म का कार्य लिया जाता है तो सत्व गुणों से ही प्रसार और लाघव की तरह रजोगुण के शोष और ताप तथा तमोगुण के सादन और आवरण रूप कार्य हो जाना चाहिये। शेषगुणों का मानना निरर्थक है। इसी तरह सभी आत्माओं में एक चैतन्यतत्व समान है, तब एक ही आत्मा माननी चाहिये, अनंत नहीं। बौद्ध रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये पाँच स्कंध मानते हैं। यदि एक में ही अन्य के धर्मों को माना जाय तो विज्ञान के बिना अन्य स्कंधों की प्रतीति नहीं होती, अतः एक विज्ञान स्कंध ही मानना चाहिये। उसी से सारे कार्य संपन्न हो जायेंगे। और शेष स्कंधों की निवृत्ति होने पर निरावलंबन विज्ञान की भी स्थिति नहीं रहेगी और तब सर्वशून्यता उत्पन्न हो जायेगी। अतः व्यापक होने पर भी आकाश में गति और स्थिति के उपकारक धर्म अधर्म की योग्यता नही मानी जा सकती।'
धर्म और अधर्म चूँकि अमूर्त होने के कारण दृष्टिगत नहीं होते, परंतु इससे खरविषाण की तरह इनकी अनुपलब्धि नहीं माननी चाहिये क्योंकि ऐसी स्थिति में तीर्थंकर, पुण्य, पाप आदि सभी पदार्थों का अभाव हो जायेगा। 1. तत्त्वार्थराजवात्तिकं 5.17 20-22 पृ. 462 2. वही 5.17 23. पृ. 463
145
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org