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सपना जो साकार हुआ
रंगरूपमल कोठारी
1.A.S. डॉ. विद्युत्प्रभाजी के शोधप्रबंध की प्रकाशन बेला में मैं निःसंदेह रूप से आह्लादित एवं प्रमुदित हूँ। यह मेरा लक्ष्य व सपना था कि वे डॉक्टरेट की मंजिल तक पहँचे। अगर मैं यह भी कहूँ कि उन्होंने पी.एच.डी. करके मुझ पर एक अनुग्रह किया है, तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
मैं उन्हें तब से जानता है जब वे बोर्डकी परीक्षा दे चुकी थीं। पदोन्नत होकर बाडमेर से मैं जोधपुर जा रहा था कि मुझे संदेश मिला कि साध्वीजी ने मुझे अपने अध्ययन के सिलसिले में याद किया है तो मैं वहाँ पहुँचा और उनसे अध्ययन संबंधी चर्चा हुई। उस समय उनके परिचय प्रभाव का दायरा अत्यन्त सीमित था। मैंने उन्हें संपूर्णत: आश्वस्त किया कि वे अध्ययन में आने वाली किसी भी समस्या से विचलित न होकर अपनी पढ़ाई जारी रखें। उसी दिन से उनकी व्यावहारिक शिक्षा का संपूर्ण उत्तरदायित्व मैंने अपने कंधों पर ले लिया। उनकी राह में अनेकों बाधाएँ आई। ___कुछ ही दिनों बाद उनकी गुरुवर्या श्री का स्वर्गवास हो गया। निःसंदेह मुझे उनकी टूटी मानसिकता से लगा कि वे अब आगे नहीं पढ़ेंगी। मैंने उन्हें पूर्ण अपनत्व से एक पिता की भूमिका से समझाया और मुझे हार्दिक संतोष है कि उसके बाद जितने भी अवरोध आये, उन सभी को पूर्ण प्रखरता से चीरती हुई वे आगे बढ़ती ही गई।
जिस तरह उन्होंने एम.ए. कर लिया। मेरा मानस था कि वे सामान्य और सरल विषय चुनकर अतिशीघ्र डॉक्टरेट कर लें पर यह पहला मौका था जब उन्होंने मेरी बात को अनसुना करके अपने ही तरीके से निर्णय लिया। उन्होंने शोध का विषय अत्यन्त गढ़ पर आगमिक चुना। ऐसा विषय चुना जो सामान्य समझ से परे था। पर अब चूँकि उनकी प्रज्ञा विकसित थी और अपनी प्रतिभा का वे शोध में उपयोग करना चाहती थी। अतः मैंने विषय निर्धारण में उनके आग्रह को स्वीकार कर लिया। वैसे मुझे और अधिक संतुष्टि थी कि वे जटिलतम विषय लेकर अपनी प्रज्ञा को पैना करना चाहती है। पर विषय निर्धारण के बाद उनकी गतिशील गाड़ी रुक गई। विहार का, परिचय का, शिष्याओं का और योजनाओं का विस्तार होता गया। उसी में उनके समय का अधिकांश भाग गुजर जाता। 1992 में उनका जब मालपुरा जाना हुआ तब उन्होंने गुरुचरणों में संकल्प किया कि इसी वर्ष उन्हें शोध प्रबंध प्रस्तुत करना है।
जिस तेजी से उनकी गाड़ी रुकी थी, उसी अनुपात में बल्कि उससे भी ज्यादा तेजी से उनकी गति तीव्रतम होती चली गई। सतत परिश्रम करके उन्होंने मालपुरा और जयपुर प्रवास के दौरान अपना शोध प्रबंध संपूर्ण कर ही लिया। स्वयं स्व. डॉ. नरेन्द्र भानावत एवं
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