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________________ उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना होते हैं, इसलिये ये ‘पारिणामिक है।' पंचास्तिकाय में जीव को परिणामी भाव के कारण ही अनादि अनंत कहा है। यही अनादि अनंत जीव औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव से सादि संत हैं, क्षायिक भाव से सादि अनंत है।' भगवती में आत्मा को आठ प्रकार की बतायी है। ये आठ प्रकार अपेक्षा से हैं। जिस समय आत्मा जिस परिणाम (भाव) मय हो, उस समय वही भाव आत्मा का है- द्रव्यात्मा, कषायात्मा, योगात्मा, उपयोगात्मा, ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा और चारित्रात्मा और वीर्यात्मा। द्रव्यात्मा सभी संसारी आत्माओं में पायी जाती है। कषायात्मा उपशांत और क्षीणकषाय आत्मा के अतिरिक्त सभी संसारी आत्माओं में पायी जाती है। योगात्मा अयोगी केवली और सिद्धों के अतिरिक्त सभी में पायी जाती है। उपयोगात्मा- यह आत्मा सिद्ध और संसारी सभी में पायी जाती है। ज्ञानात्मायह सम्यग्दृष्टि जीवों में पायी जाती है। ज्ञान यहाँ सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा से कहा है। दर्शनात्मा- यह आत्मा सभी जीवों में न्यूनाधिकता से पायी जाती है। चारित्रात्मा- यह विरति धर मुनियों में या व्रतधारी श्रावकों में पायी जाती है। वीर्यात्मा- सकरण वीर्य युक्त आत्मा सभी संसारी जीवों में पायी जाती है। सिद्धों में सकरण वीर्य नहीं होता। कौनसी आत्मा के साथ कौन सी आत्मा पायी जाती है? इसका विवेचन भी भगवती सूत्र में विस्तार से उपलब्ध होता है।' तत्त्वार्थ सूत्र में पारिणामिक भाव के तीन भेद किये हैं-जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व। ये तीनों भाव मात्र जीव द्रव्य में ही पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। जीवत्व का अर्थ चैतन्य है। जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है, उसे भव्य एवं इससे विपरीत को अभव्य कहते हैं।' इन तीनों भावों को शुद्ध पारिणामिक और अशुद्धपारिणामिक में भी बाँटा जा सकता है। 1. म.मि. 2.7.268. 2. पचास्तिकाय 53. 3. प.का.ता वृ. 53. 1. भगवती 12.10.1. 5. भगवती।2.10.2-8. 6. त.मू.2.7. 7. म.मि. 2.7.268. Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002592
Book TitleDravyavigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyutprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1994
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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