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सांस्कृतिक अवदान
जैन संस्कृति और अध्यात्म
संस्कृति एक आन्तरिक तत्त्व है, जो व्यक्ति और समाज के आत्मिक-संस्कारों पर केन्द्रित रहता है। सभ्यता उसका बाह्य-तत्त्व है, जो देश और काल के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। यह परिवर्तन संस्कृति को प्रभावित भले ही कर दे पर उसमें आमूल परिवर्तन करने की क्षमता नहीं रहती। इसलिए संस्कृति की परिधि काफी व्यापक होती है। उसमें व्यक्ति का आचार-विचार, जीवन-मूल्य, नैतिकता, धर्म, साहित्य, कला, शिक्षा, दर्शन आदि सभी तत्त्वों का समावेश होता है। इन तत्त्वों को हम साधारण तौर पर सांस्कृतिक और सामुदायिक चेतना के अन्तर्गत निविष्ट कर सकते हैं।
__ व्यक्ति समाजनिष्ठ होने के बावजूद आत्मनिष्ठ है। पर सन्देह और तर्क की गहनता ने, बौद्धिक व्यायाम की सघनता ने उसकी इस आत्मनिष्ठता पर प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया है और उसकी आत्मानुभूति की शक्ति को पीछे ढकेल दिया है। वह कमजोरियों का पिण्ड है, इस तथ्य को जानते हुए भी अहङ्कार के कारण वह सार्वजनिक रूप से उसे स्वीकार नहीं कर पाता। यह अस्वीकृति उसका स्वभाव बन जाता है। फलत: क्रोधादि कषायों के आवेश और आवेग को वह अनियन्त्रित अवस्था में पाले रहता है। ___अध्यात्म एक सतत् चिन्तन की प्रक्रिया है, अन्तश्चेतना का निष्यन्द है। वह एक ऐसा संगीत स्वर है, जो एकनिष्ठ होने पर ही सुनाई देता है और स्वानुभव की दुनियां में व्यक्ति को प्रवेश करा देता है। स्वयं ही निष्पक्ष चिन्तन
और ध्यान के माध्यम से वह अपनी कमजोरियों को बाहर फेकने के लिए आतर हो जाता है। उसका हृदय आत्मसुधार की ओर कदम बढ़ाने के लिए एक सशक्त माध्यम की खोज में निकल पड़ता है- यह माध्यम है-धर्म और अध्यात्म।
पशु और मनुष्य को पृथक् करने वाला तत्त्व है- विवेक। विवेक न होने से पशु आज भी अपने आदिम जगत् में है जबकि मनुष्य ने विवेक के माध्यम
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