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________________ जिन आगम ग्रन्थों पर भाष्य मिलते हैं वे हैं -- आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, बृहत्कल्प, पंचकल्प, व्यवहार, निशीथ, जीतकल्प, ओघनियुक्ति और पिण्डनियुक्ति। ये सभी भाष्य पद्यबद्ध प्राकृत में हैं। आवश्यकसूत्र पर तीन भाष्य मिलते हैं - मूलभाष्य, भाष्य और विशेषावश्यकभाष्य। “विशेषावश्यकभाष्य" आवश्यकसूत्र का प्रथम अध्ययन मात्र सामायिक पर लिखा गया है फिर भी उसमें ३६०३ गाथायें हैं। इसमें आचार्य जिनभद्र (लगभग वि० सं० ६५०-६६०) ने जैन ज्ञान और तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से सामग्री को संकलित किया है। योग, मंगल, पंचज्ञान, सामायिक, निक्षेप, अनुयोग, गणधरवाद, आत्मा और कर्म, अष्टनिह्नव, प्रायश्चित्तविधान आदि का विस्तृत विवेचन मिलता है। जिनभद्र का ही दूसरा भाष्य 'जीतकल्प' (१०३ गा.) पर है। जिसमें प्रायश्चित्तों का वर्णन है। इसी पर एक स्वोपज्ञभाष्य (२६०६ गाथायें) भी मिलता है जिसमें बृहत्कल्प, लघुभाष्य, व्यवहारभाष्य, पंचकल्प, महाभाष्य, पिण्डनियुक्ति आदि की गाथायें शब्दश: उद्धृत हैं। बृहत्कल्प लघुभाष्य के रचयिता संघदासगणि क्षमाश्रमण जिनभद्र के पूर्ववर्ती हैं जिन्होंने इसे छः उद्देशों और ६४९० गाथाओं में पूरा किया। इसमें जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक साधु-साध्वियों के आहार-विहार, निवास आदि का सूक्ष्म वर्णन किया गया है। सांस्कृतिक सामग्री से यह ग्रन्थ भरा हुआ है। इन्हीं आचार्य का पंचकल्पमहाभाष्य (२६६५ गा.) भी मिलता है। बृहत्कल्प लघुभाष्य के समान बृहत्कल्प बृहद्भाष्य भी लिखा गया है पर दुर्भाग्य से अभी तक वह अपूर्ण ही उपलब्ध हुआ है। इस सन्दर्भ में व्यवहारभाष्य (दस उद्देश), ओघनियुक्ति लघुभाष्य (३२२ गा.), ओघनियुक्ति बृहद्भाष्य (२५९७ गा.) और पिण्डनियुक्ति भाष्य (४६ गा.) भी उल्लेखनीय है। चूर्णि साहित्य आगम साहित्य पर नियुक्तियों और भाष्यों के अतिरिक्त चूर्णियों की भी रचना हुई है। पर वे पद्य में न होकर गद्य में हैं और शुद्ध प्राकृत भाषा में न होकर प्राकृत-संस्कृत मिश्रित हैं। सामान्यत: यहाँ संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत का प्रयोग अधिक हुआ है। चूर्णिकारों में जिनदासगणि महत्तर और सिद्धसेन सूरि अग्रगण्य हैं। जिनदासगणि महत्तर (लगभग वि०सं० ६५०-७५०) ने नन्दि, अनुयोगद्वार, आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, बृहत्कल्प, व्याख्याप्रज्ञप्ति, निशीथ और दशाश्रुत्तस्कन्ध पर चूर्णियाँ लिखी हैं तथा जीतकल्प चूर्णि के कर्ता सिद्धसेन सूरि (वि०सं० १२२७) हैं। इनके अतिरिक्त Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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