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दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर के निर्वाण के ३४५ वर्ष बाद दशपूर्वो का विच्छेद हुआ । अन्तिम दशपूर्व ज्ञानधारी - धर्मसेन थे । श्वेताम्बर परम्परा भी इस घटना को स्वीकार करती है, पर महावीर निर्वाण के ५८४ वर्ष बाद । उसके अनुसार दशपूर्वज्ञान के धारी अन्तिम आचार्य वज्र थे । श्रुतिलोप का क्रम बढ़ता ही गया । दशपूर्वों के विच्छेद हो जाने के बाद विशेष पाठियों का भी विच्छेद हो गया । दिगम्बर परम्परा इस घटना को महावीर निर्वाण के ६८३ वर्षों के बाद घटित मानती है पर श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आर्यवज्र के बाद १३ वर्षों तक आर्यरक्षित युगप्रधान आचार्य रहे । वे साढ़े नव पूर्वों के ज्ञाता थे। उन्होंने विशेष पाठियों का क्रमशः ह्रास देखकर उसे चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया। फिर भी पूर्वों के लोप को बचाया नहीं जा सका।
ii) माथुरी वाचना
पाटलिपुत्र की प्रथम वाचना के पश्चात् दो दुर्भिक्ष और पड़े - प्रथम महावीर निर्वाण के २९१ वर्ष बाद, आर्यसुहस्ति सूरि के समय, सम्प्रति के राज्यकाल में और द्वितीय ८२७ वर्ष बाद आर्य स्कन्दिल और वज्रस्वामी के समय । इन दुर्भिक्षों के कारण अस्त-व्यस्त हुई आगम परम्परा को व्यवस्थित करने के लिए आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में एक वाचना बुलाई गई । १ इसी समय हुई एक अन्य वाचना का भी उल्लेख मिलता है जो आचार्य नागार्जुन के नेतृत्व में बलभी में आयोजित की गई थी । २ मलयगिरि के अनुसार अनुयोगद्वार और ज्योतिष्करण्डक इसी वाचना के आधार पर संकलित हुए हैं।
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वलभी वाचना
माथुरी और वलभी वाचना के पश्चात् लगभग १५० वर्ष बाद पुनः वलभी में आचार्य देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में परिषद् की संयोजना की गई और उसमें उपलब्ध आगम साहित्य को लिपिबद्ध किया गया। यह संयोजना महावीर के परिनिर्वाण के ९८० वर्ष बाद (सन् ४५३ ई०) हुई । श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगम इसी परिषद् का परिणाम है। इसमें संघ के आग्रह से विच्छिन्न होने से अवशिष्ट रहे, परिवर्तित और परिवर्धित, त्रुटित और अत्रुटित तथा स्वमति
श्वेताम्बर परम्परा इस घटना को महावीर निर्वाण के १७० वर्ष बाद मानती है और दिगम्बर परम्परा १६२ वर्ष बाद ।
कहावली, २९८; कल्याणविजय मुनि — वी.नि.सं. और जैन कालगणना,
पृ० १०४ - १७
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