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________________ उत्तरकालीन आचार्यों ने भी जहाँ कहीं आचार्य कार्तिकेय का अनुकरण किया है। वस्तुतः ये परिभाषायें धर्म के विविध रूपों को उजागर करती है। उनमें कोई भेद नहीं है, वर्णन करने का तरीका ही अलग-अलग है। इन सारी परिभाषाओं की आधारशिला है - जं इच्छसि अप्पणत्तो, जं च नं इच्छति अप्पणंतो। तं इच्छ परस्स वि या, एत्तियगं जिणसासणं।। अर्थात् अपने लिये वही चाहो जो तुम दूसरों के लिए भी चाहते हो और जो तुम अपने लिये नहीं चाहते वह दूसरों के लिए भी मत चाहो। यही जिनशासन है। स्वाध्याय के माध्यम से ही यह प्राप्तव्य है। - जैनधर्म में धर्म की ये सारी परिभाषाएँ समता को केन्द्र में रखकर बनाई गई हैं। समता पाने का इच्छुक साधक तब मात्र परम्परा का पालन नहीं करता। वह तो अपने में हर पल क्रान्ति देखता है, नयी ज्योति पाता है। इसलिये धर्म वैयक्तिक है, सामूहिक नहीं। उस ज्योति को पाने में उसे स्वाध्याय सबसे बड़ा सहयोगी तत्त्व सिद्ध होता है और उसी तत्त्व से वह परम सत्य को उपलब्ध हो जाता है - स्वाध्यायः श्रेयसे मतः। (१०) उपयोग और भक्ति जैन संस्कृति में आत्मा से परमात्मा बनने के लिए शुद्ध भक्ति का आश्रय लिया जाता है। यहाँ आत्मा की व्याख्या 'उपयोग' शब्द के माध्यम से भी की गई है। यह उपयोग चैतन्य का परिणाम है, ज्ञान-दर्शन मूलक है। जो ज्ञानोपयोग इन्द्रियों की सहायता के बिना ही प्रगट होता है वह केवलज्ञान है, स्वभावज्ञान है। शेष चारों ज्ञानों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से होते हैं तथा अन्तिम दो ज्ञान अवधि ज्ञान और मनःपर्ययज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही उत्पन्न होते हैं। क्रमश: ये ज्ञान उत्तरोत्तर विमलता को लिये रहते हैं। यह उपयोग तीन प्रकार का है - शुभोपयोग, अशुभोपयोग तथा शुद्धोपयोग। जीवों पर दया, शुद्ध मन-वचन-काय की क्रिया, शुद्ध दर्शन ज्ञानरूप उपयोग ये शभोपयोग संवर तथा निर्जरा सहित मुख्यता से पुण्य कर्म के आस्रव के कारण हैं। पूजा, दान आदि में लीन आत्मा शुभोपयोगी होती है, पंच परमेष्ठियों के प्रति भक्ति-भाव से भी शुभोपयोग होता है। प्रशम, संवेग, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ आदि भावनाओं से चित्त विशुद्ध होता है। पर राग, द्वेष, मोह Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002591
Book TitleBharatiya Sanskruti me Jain Dharma ka Aavdan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size4 MB
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