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________________ ७ जीवन की निर्मलता ही शुचिता है अर्थ और प्रतिपत्ति शोच और शुचि ये दोनों शब्द समानार्थक हैं। इनका अर्थ है— निर्मलता, पवित्रता। यह पवित्रता बाह्य और आभ्यन्तर दो प्रकार की होती है । बाह्य पवित्रता मिट्टी, जल, अग्नि और मन्त्र से की जाती है तथा आभ्यन्तर पवित्रता ब्रह्म, सत्य, तप, इन्द्रिय - निग्रह और सर्वभूतदया से प्राप्त हो सकती है। बारह व्रतों का परिपालन कर आत्मा की विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कराना शुचि धर्म का कार्य है । पातञ्जलयोगप्रदीप में कहा गया है – ईर्ष्या, अभिमान, घृणा, असूया आदि मलों को मैत्री आदि से दूर करना, बुरे विचारों को शुद्ध विचारों से हटाना, दुर्व्यवहार को सद्व्यवहार से दूर करना मानसिक शौच है। सांसारिक वासना की अन्धी दौड़ में मन की चञ्चलता बढ़ जाती है। वह प्रेय विषयों की ओर दौड़ पड़ता है। प्रेय मन का विषय है और श्रेय चैतन्य का विषय है। मन वस्तुतः शेखचिल्ली है, वह स्वप्नों का शृङ्गार अधिक रचता है। कल्पना के लोक में भटकना उसका स्वभाव है। गृहस्थ अभाव में जीता है। जिस ओर भी उसकी दृष्टि घूमती है, हथियाने का प्रयत्न करता है। राग उसका बन्धन है। जो भी मिलता है, उससे वह अपने को बांध ता है। भीतर से वह खाली रहता है। उसे वह पर - पदार्थों के लोभ से भरने का प्रयत्न करता है। इस लोभ के कारण उसकी वृत्तियां पवित्र नहीं रह पातीं। शुचिता का विरोधी भाव ही लोभवृत्ति है । स्वरूप कुन्दकुन्दाचार्य ने आकांक्षा भाव को दूर कर वैराग्य भावना से युक्त रहने को कहा है (बारस अणु० ७४) । इसी को अधिक स्पष्ट करते हुए पूज्यपाद ने लोभ से निवृत्ति को शौच कहा है। अकलंक ने इसी स्वर में अपना स्वर मिलाते हुए लोभ के चार प्रकार बताये हैं - जीवन लोभ, आरोग्य लोभ, इन्द्रिय लोभ और उपभोग लोभ । सिद्धसेनगणि ने इस परिभाषा को कुछ और व्यापक बनाया और कहा कि सचित्त, अचित्त और मिश्र वस्तुओं में आसक्ति होना लोभ है। लोभ से ही क्रोधादि कषायों की - Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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