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________________ ७८ है। संवेदन जितना तीव्र होगा प्रतिक्रिया उतनी ही गहरी होगी। यह गहराई तब तक कम नहीं होगी जब तक भीतरी जागरण नहीं होगा। भीतरी जागरण से ही संन्यासी को स्वर्ण से वितृष्णा होती है और वह झोपड़ी में रहता है, जबकि राजा या गृहस्थ उससे राग करता है और प्रासाद में रहता है। हमारी चेतना चार स्तरों से गुजरती है - इन्द्रिय, मन, बुद्धि और अनुभव। अनुभव की सघनता ऋजुता को पैदा करती है, जिससे व्यक्ति अपनी भूल स्वीकार करने को तैयार हो जाता है। इसके लिए उसकी तीक्ष्ण प्रज्ञा, पैनी अन्तर्दृष्टि और सबल मनोबल अधिक काम करता है। कपट भाव की बुराइयों को समझकर व्यक्ति मायावी स्वभाव से मुक्त होने का मन कर लेता है भले ही वह वंशानुगत क्यों न हो। ___मायावी स्वभाववाला तिर्यञ्चों में पैदा होता है और वह स्वभाव वंशानुगत होता है। वहां विवेकहीनता रहती है। मानव में वह वंशानुगत नहीं होता। उसमें तो विवेक-शक्ति का उपयोग न कर पाने के कारण वह छल-कपट किया करता है। इस छल-कपट या वक्रता को अधिकता के क्रम से चार श्रेणियों में विभक्त किया जाता है -- बांस की जड़, मेढे के सींग, गोमूत्र और खुरपी। इसी तरह ऋजुता को चौभंगी द्वारा समझाया जा सकता है - सरल, सरलवक्र, वक्रसरल और वक्रवक्र। प्रकृति और प्रभाव स्वच्छ जल में जिस तरह कंकड़ डालने या फेंकने से जो चञ्चलता निर्मित होती है, उसमें अपनी प्रतिकृति नहीं देखी जा सकती, उसी तरह मायावी स्वभाव वाला व्यक्ति स्वयं को नहीं देख पाता। उसमें मायाचारी, धोखाधड़ी, आशंका, भय, अविश्वास, पैशून्य, झूठ बोलना आदि की असत् प्रवृत्तियाँ स्वयमेव आ जाती हैं। उसकी ये प्रवृत्तियाँ अनार के दाने की तरह अन्दर भरी रहती हैं। किसी संस्कृत कवि ने बड़ा अच्छा कहा है - "सन्धत्ते सरला सूची, वक्रा देदाय कर्तरी"। इसका तात्पर्य है कि सई सरल और सीधी होती है। इसलिए वह टुकड़ों को जोड़ती है, एक करती है, परन्तु कैंची वक्र अर्थात् टेढ़ी होती है, इसलिए वह काटने का काम, अलग करने का काम करती है। इसी तरह सरल स्वभावी दो मनों को जोड़ता है, परस्पर प्रेम भाव स्थापित करता है, पर कुटिल स्वभावी व्यक्ति दो मनों को अलग-अलग कर देता है। कपटी मनुष्य का मन निर्मल नहीं होता। उसके अन्दर प्रकाशपुञ्ज हो ही नहीं सकता। हमारे स्वभाव में सरलता होने से हमें काय की ऋजुता, वाणी की ऋजुता, तथा कथनी और करनी में समानता प्राप्त होती है। मायाचारी कुटिल स्वभावी को कभी मानसिक शान्ति नहीं मिल सकती। उसे संसार में कुछ भी स्पष्ट नहीं हो पायेगा, क्योंकि Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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