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________________ प्राक्कथन व्यक्ति जिजीविषा और जिज्ञासा जैसी वृत्तियों के बीच जूझते उलझते मानवीय जीवन की गुत्थियों को सुलझाना चाहता है, पर भौतिकता के चकाचौंध में अन्धा होकर वह उल्टे ही उलझता रहता है। आशाओं और आकांक्षाओं की असीमितता तथा अहङ्कार और ईर्ष्या की अपरिमितता ने व्यक्ति को हताशा और दग्धता के अलावा दिया ही क्या है? ये सांसारिक वृत्तियां दुःखवादी नाड़ियाँ जैसी हैं। इनसे शरीर लहुलहान-सा बना रहता है और मन सदैव छटपटाता रहता है इसे हम चाहे दुःखवाद कहें या विभ्रमवाद, उनकी दिशा और दशा एक ही है। इस हताशा से बचने और सांसारिकता की ऊब से छुटकारा पाने के लिए बरबस हमारा मन आध्यात्मिकता की ओर झुक जाता है। हम चाहते हैं, कहीं कोई ऐसी छाया मिल सके जहां क्षणभर भी विश्राम किया जा सके, मन की चञ्चलता पर लगाम लगायी जा सके और मानसिक तनाव से मुक्त हुआ जा सके। आध्यात्मिक पर्व ऐसे ही सुनहरे अवसर होते हैं, जिनमें व्यक्ति निर्द्वन्द्व होकर स्वयं को खोजने का प्रयत्न करता है। प्राचीन आचार्यों ने वर्षाकालीन चार माह का बड़ा सुन्दर समय इस दृष्टि से चुना है। इस समय आवागमन कम हो जाता है, बाहर की व्यस्ततायें सिकुड़ जाती हैं और व्यापार भी ठण्डा हो जाता है। जैन संस्कृति ने इस समय का उपयोग धर्म-ध्यान में लगाने के लिए चुना है। पर्युषण पर्व ऐसा ही अवसर है जो लगातार अठारह दिन चलता है- भाद्रपद मास में। साधारण तौर पर भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी के दिन समाप्त होता है। इसे दश लक्षण महापर्व भी कहा जाता है। पर्व के अन्त में संवत्सरी और खमतखामणा या क्षमावाणी पर्व मनाकर पारस्परिक मनोमालिन्य को दूर करने का प्रयत्न किया जाता है। इस पर्व पर जैन मन्दिरों और स्थानकों में प्रतिदिन प्रवचन होते हैं, भजन-पूजन होता है और स्वाध्याय आदि के माध्यम से आध्यात्मिक चिन्तन किया जाता है। पहले आठ दिन कल्पसूत्र के आधार पर प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर तक की परम्परा पर विस्तार से चर्चा की जाती है। स्वाध्याय, तप और प्रतिक्रमण भी इसी के साथ चलते रहते हैं। अन्तिम दस दिन क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन और ब्रह्मचर्य इन दश धर्मों पर प्रवचन किया जाता है और तत्त्वार्थसूत्र के दशों अध्यायों की क्रमश: वाचना की जाती है। जीवन में धर्म के दश लक्षणों पर विस्तार से विचार कर उनकी साधना की जाती है। दन धर्मों के माश Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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