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________________ ३३ मन से अविवाहित रहे होंगे। भौतिक साधनों के रहते हुए भी निर्भोगी बन जाने में कहीं अधिक वैशिष्ट्य है। हम यों भी कह सकते हैं कि महावीर भोगों में रहते हुए भी निर्भोगी रहे, विवाहित रहते हुए भी अविवाहित रहे और घर में रहते हुए भी बेघर रहे। वीतरागता का सही परिचय ऐसी अवस्थाओं में ही मिल पाता है। महाभिनिष्क्रमण : अन्तर्ज्ञान की खोज में लगभग तीस वर्ष की अवस्था तक भगवान् महावीर गृहस्थावस्था में ही रहकर आत्मचिन्तन करते रहे। महावीर जब २८ वर्ष के थे तभी माता-पिता के स्वर्गवास ने उन्हें और भी आत्मोन्मुखी बना दिया। भेदविज्ञान जागरित होते ही उन्हें संसार की ऐश्वर्यमयी सम्पदा तृणवत् प्रतीत होने लगी । पदार्थ की विनश्वरशीलता का दर्शन उन्हें स्पष्टतर होता गया । वैराग्य की भावना और दृढ़तर हो गई। फलत: उन्होंने मार्गशीर्षकृष्णा दशमी तिथि को चतुर्थ प्रहर में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के योग में आर्हती दीक्षा ग्रहण कर ली। इस अवसर पर सभी गण्यमान्य व्यक्ति उपस्थित थे। सभी के समक्ष महावीर ने पंचमुष्टि केशलुञ्चन किया जो संसार की समस्त वासनाओं से विमुक्त हो जाने के उपक्रम का प्रतीक है । ५ इस सन्दर्भ में दो परम्परायें उपलब्ध हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर ने प्रारम्भ से ही दिगम्बर वेष धारण किया पर श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दीक्षा ग्रहण करते ही शक्रेन्द्र ने उन्हें देवदृष्य वस्त्र प्रदान किया। वह वस्त्र उनके स्कन्ध पर रहा। कुछ ग्रन्थकार दरिद्र ब्राह्मण की याचना पर उसका आधा भाग प्रदान करने का उल्लेख करते हैं और कुछ ग्रन्थकार नहीं । और वह वस्त्र तेरह माह तक उनके पास रहा फिर वह नीचे गिर गया। जैनेतर साहित्य में महावीर के इस महाभिनिष्क्रमण को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। पर कुछ समय बाद साधना में जिस प्रकार की सघनता और निर्मलता आती गई, वह विश्रुततर और समाज के आकर्षण का केन्द्र बनती गई । पालि साहित्य में उनकी इसी अवस्था का वर्णन मिलता है । वहाँ उन्हें 'निगण्ठनातपुत्तो' कहकर अनेक बार स्मरण किया गया है। यहाँ 'निगण्ठ' शब्द अचेलक और निष्परिग्रही होने का प्रतीक है। छद्मस्थ साधना और विशिष्ट घटनायें १. साधनाकाल में महावीर अपना परिचय 'भिक्खु' के रूप में देते रहे । ६ उनके लिए 'मुणि' शब्द का भी प्रयोग हुआ है । ७ ये दोनों शब्द महावीर की साधना के दिग्दर्शक हैं। गृह त्याग करने के उपरान्त साधक महावीर केवलज्ञान की प्राप्ति के निमित्त लगभग बारह वर्ष तक सतत साधना करते रहे। इसी काल को छद्मस्थ कहा गया है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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