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________________ में मनाया जाता है। पर दिगम्बर परम्परा इसे दस दिन तक मनाती है। वहाँ यह पर्व पञ्चमी से प्रारम्भ होता है और चतुर्दशी तक चलता है। श्वेताम्बर परम्परा में इसे पर्युषण पर्व कहा जाता है और दिगम्बर परम्परा इसे दशलक्षण पर्व के नाम से पुकारती है। यहाँ भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी एक ऐसा दिन है, जिसे दोनों परम्परायें स्वीकार करती हैं। एक दिन का ही पर्युषण मानने वाली अन्यतम श्वेताम्बर परम्परा इसे संवत्सरी अथवा खमतखामणा के रूप में मनाकर पारस्परिक मनोमालिन्य को दूर करती है, जबकि दिगम्बर परम्परानुयायी पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा को क्षमावाणी पर्व मनाती है; क्योंकि पूर्णिमा तक रत्नत्रय व्रत चलते हैं। इस तरह यह पर्व लगातार बीस दिन तक चलता रहता है। पर्युषण की परम्परा परम्परानुसार प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के काल को छोड़कर शेष बाईस तीर्थङ्करों के समय में वर्षावास का निश्चित विधान नहीं था। दोष की कोई सम्भावना न होने पर साधु कितने ही समय तक एक स्थान पर रह सकता है। यदि दोष की सम्भावना हो तो एक माह भी उसे वहाँ नहीं रहना चाहिए (बृहत्कल्पभाष्य, ६४३५)। परन्तु प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ और अन्तिम तीर्थङ्कर महावीर के समय वर्षावास का एक निश्चित विधान रहा है। तदनुसार आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी तक वर्षावास कर लेना चाहिए। निशीथचूर्णि (३१५३) के अनुसार किन्हीं विशेष परिस्थितियों में यह वर्षावास काल एक माह बीस दिन तक और आगे बढ़ाया जा सकता है। इसके बाद साधु को हर कीमत पर भाद्रपद शुक्ल पञ्चमी को वर्षावास कर ही लेना चाहिए। इसके समर्थन में समवायांग (७०वां स्थान, आयारदशा ८, कप्पदसा) का वह स्थल प्रस्तुत किया जा सकता है जिसमें कहा गया है कि तीर्थङ्कर महावीर ने भी वर्षावास के पचासवें दिन पर्युषण किया था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दिगम्बर परम्परा इसी दिन से पर्यषण पर्व प्रारम्भ करती है और श्वेताम्बर परम्परा उसे संवत्सरी अथवा क्षमावाणी पर्व के रूप में मनाती है। जो भी हो, यह दिन दोनों परम्पराओं में समान रूप से क्षमा पर्व के रूप में मनाया जाता है। यह पर्व आध्यात्मिक संस्कृति का एक अलौकिक पर्व है। इसमें समाज का हर व्यक्ति जप, तप, स्वाध्याय और अनुष्ठान में लगा रहता है। श्वेताम्बर आगमों में पर्युषण के लिए दो शब्द मिलते हैं- पज्जुसणा और पज्जोसमणा। कल्पसूत्र आदि की टीकाओं में 'पज्जुसणा' के अनेक पर्यायार्थक शब्द मिलते हैं जिनका अर्थ इस प्रकार है - १. पज्जोसमणा (पर्योपशमना) – इस समय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी ऋतुबद्ध पर्यायों का परिहार किया जाता है और तपश्चरण, केशलुंचन, Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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