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________________ ११९ नहीं कर सके। स्थूलभद्र ने वेश्या के घर चातुर्मास किया और वेदाग वापिस आये। इतना ही नहीं उस वेश्या को भी अपने संवेगी रंग में रंग लिया। जबकी ईष्यालु दूसरा साधु भ्रष्ट हो गया। इसलिए बाह्य निमित्तों से बचने के साथ ही आन्तरिक कुभावों को पनपने न दे और सद्भावों की खेती को प्रोत्साहन मिलता रहे। साधना का मूल उद्देश्य साधना का मूल उद्देश्य है क्षमता को जाग्रत करना। यह क्षमता तब तक जाग्रत नहीं होगी जब तक हमें चैतन्य का सही अनुभव नहीं होगा और आत्म-साक्षात्कार नहीं होगा। सबसे अधिक नजदीक हमारा अपना शरीर है। उसके अंग-प्रत्यंगों पर गहराई से विचार करें और स्थूल से सूक्ष्म की ओर जाते हुए यह देखने का प्रयास करें कि शरीर के बीच बसी हुई आत्मा शरीर से बिलकुल अलग है। उन दोनों के स्वभाव भी बिलकुल भिन्न-भिन्न हैं। एक समझौते के अन्दर वे एक साथ रहने के लिए कालबद्ध हैं। हंसना, रोना, सुख, दुःख आदि क्रियायें शरीर की नहीं हैं, पर वे उसके माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं। आत्मा स्वरूपत: परम विशुद्ध और अनन्त ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति से भरपूर है, पर कर्मों के कारण उसका यह स्वभाव आवृत्त हो गया है। जैसे ही उसका यह आवरण हट जाता है, देह और आत्मा पृथक्-पृथक हो जाते हैं, वे अपनी मूल प्रकृति में पहुँच जाते हैं। यह यात्रा बहुत लम्बी है। पाथेय इकट्ठा करना होगा उस पर चलने के लिए। तदर्थ 'तज्जीवतच्चछरीरवाद' को छोड़कर भेद-विज्ञान पर मन को टिकाना होगा। ___संसार का स्वभाव विषमता है। विषमता में समता पैदा करना सरल नहीं होता। सभी धनी हो जायें और सभी सुखी हो जायें, यह सम्भव नहीं। संसार में धनी होने और सुखी होने का अर्थ ही कुछ दूसरा है। आध्यात्मिक क्षेत्र में उसे मात्र सुखाभास कहेंगे, क्योंकि उस धन और सुख के नीचे बारूद की सुरंगे बिछी हुई हैं, दुःख की परतों पर परतें लगी हुई हैं। संसारी अतृप्त वासना से पीड़ित रहता है और उसी की तृप्ति में दिन रात आपा-धापी करता रहता है। फिर भी तृप्ति नहीं होती, क्योंकि तृप्ति का पेट अगाध रहता है। जितनी तृप्ति होती जाती है, उसका पेट उतना ही गहरा और फूलता चला जाता है। इस अतृप्ति को साधक अपनी सुलझी चेतना से देखता है और उसके नग्न सत्य का आभास पाकर वैराग्य की ओर मुड़ जाता है। उसके अन्तर में वैराग्य भावना का विकास होता है और समाधि के माध्यम से वह चित्त में फैली गन्दगी को दूर कर उसे सुस्थिर करता है। उसके सारे उपाय और साधन सम्यक हो जाते हैं, पारे के समान चिन्तन होने के बावजूद मन को बांधने की कोशिश करता है और अन्तत: वह बंध भी जाता है। Jain Education International 2010.03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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