SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ की अपेक्षा से शुभ प्रवृत्तियों के प्रति भी राग छोड़ दिया जाता है। श्रावकों के लिए दान, पूजा, अभिषेक, अतिथि-सत्कार आदि कर्तव्यों की गणना की गई है, जो लोभ को शिथिल करते हैं और अहं के विसर्जन में कारण बनते हैं। त्याग और दान जिनसेनाचार्य ने सभी प्रकार के दानों को अभयदान के अन्तर्गत रख दिया है। मन्दिर आदि प्रतिष्ठान वीतरागता की उत्पत्ति में सहायक बनते हैं और व्यक्ति को संसार से निर्भय बना देते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में आयी निर्भरता सभी गुणों के लिए आधारभूमि बन जाती है। भय के तीन क्षेत्र हैं- रोग, मौन और बुढ़ापा। जिन्हें अध्यात्म से कोई रस नहीं, प्रेम नहीं, वे इन तीनों प्रकार के भयों से ग्रस्त रहते हैं। पर अध्यात्म रस में डूबे हुए महात्मा बिलकुल निर्भय रहते हैं। सुकरात को कभी मृत्यु का भय नहीं रहा। रवीन्द्रनाथ टैगोर को कोई मारने आया तो उन्होंने कहा- “रुको, अभी पत्र पूरा कर लूं।" सुनकर मारने की तैयारी करने वाला चरणों में गिर गया। त्याग-धर्म के साथ अन्तर्चेतना का स्फुरण सम्बद्ध है। कहा जाता है, एक ज्योतिषी ने भिखारी के घर को खुदवाकर रत्नभण्डार होने की सूचना दी। यह कथा इस ओर संकेत करती है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक अन्तर्चेतना है, जो शुभोपयोग और शुद्धोपयोग की ओर साधक को लगा देता है। किन्तु इसके लिए उसे अपनी वृत्तियों की भी गहरी खुदाई करनी होगी और उपवास व संकल्प शक्ति का विकास करना होगा। अभय बिना कोई भी व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं बन सकता, इसलिए अभय को प्रणाम किया गया है- णामोत्थुणं अभयदयाणं। जब तक शरीर से मूर्छा है, तब तक भय बना रहता है। भय से ही पलायन होता है। पर पलायन करना उचित नहीं है। यदि व्यक्ति शरीर पर चिन्तन करे तो उसमें न मूर्छा होगी, न भय होगा और न वह पलायन करेगा। राग-द्वेष भी विगलित होने लगेगा। त्याग करने वाले वीतरागी साधु का सत्संग आध्यात्मिकता के उन्मेष के लिए आवश्यक है। उनका उपदेश, प्रवचन सुनकर व्यक्ति अपना आभामण्डल बदल सकता है। वह ज्ञानदान, आहारदान, औषधिदान और अभयदान देकर अपने जीवन को कृतार्थ कर सकता है। अन्धकार से प्रकाश में लाना, अंधे को ज्योति देना ज्ञानदान है। पाठशालायें, महाविद्यालय, साहित्य प्रकाशन संस्थायें आदि खोलकर साक्षरता के अभियान को तेज किया जा सकता है। भटकते व्यक्ति को सत्पथ पर लाना अनुपम पुण्य कार्य है। भूखों को भोजन देना अथवा साधुओं को आहार देना आहारदान है। चिकित्सालयों की स्थापना Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy