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________________ १०८ उपाय हैं- अलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभयार्ह, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, दीक्षा छेद, पुन: दीक्षा-ग्रहण (उपस्थापना), अनवस्थाप्य और पारांचिकाई। प्रमादजन्य दोषों की शुद्धि के लिए इन मार्गों का विधान किया गया है। ___ साधक प्रायश्चित्त में सारी गलती का आरोपण स्वयं पर कर लेता है कि यदि ऐसा नहीं होता तो उसे ऐसा नहीं करना पड़ता। उसका ध्यान यहाँ तक कि स्वयं के अतीत जन्मों पर चला जाता है कि उसने पूर्वजन्मों में भी इसी प्रकार भूलें की होंगी। इस सहज स्वीकृति से आत्म-विशुद्धि बढ़ जाती है और नये-नये द्वार उद्घाटित हो जाते हैं। प्रायश्चित्त के बाद विनय आता है। विनय बिना अहंकार-नाश के नहीं आता। इसमें दूसरे के दुर्गुण को देखने में न रस रहता है और न स्वयं को सज्जन प्रमाणित करने की आकांक्षा। यह तो एक विधेयात्मक गुण है, जहाँ अहंकार का कोई भाव ही नहीं है। इसमें यह भी नहीं देखा जाता है कि सामने खड़ा व्यक्ति अपने से छोटा है या बड़ा। अपने से श्रेष्ठ या बड़े व्यक्ति का आदर करना व्यावहारिक विनय है, क्योंकि अपने से छोटे या निकृष्ट व्यक्ति का फिर अनादर भी किया जा सकता है। पर विनय तप में ऐसा नहीं होता। वहाँ तो आदर दिया नहीं जाता, हो जाता है। तुलना का कोई स्थान विनय में नहीं है। वह तो एक आन्तरिक गुण है, विशुद्धि है। विनय-तप करने वाला गलती करने वाले के कर्मों पर विचार करेगा कि कर्मों के कारण उसे ऐसा करना पड़ा। दोष उसका नहीं उसके कर्मों का है। अत: कर्म करने वाले का अनादर क्यों किया जाये? व्यावहारिक विनय के आगे का कदम है विनय-तप, जहाँ सब कुछ स्वयं पर डाल दिया जाता है, ताकि किसी प्रकार का अहंकार न आ सके। इस प्रकार ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार के माध्यम से विनय सम्पन्नता आ पाती है। वैयावृत्य का अर्थ है-सेवा। रोगी, वृद्ध, ग्लान आदि की निःस्वार्थ भाव से सेवा करना वैयावृत्ति है। यह वैयावृत्ति वस्तुत: अतीत कर्मों की निर्जरा के लिए होती है। इसका सम्बन्ध भविष्य से नहीं है। भविष्य तो स्वभावत: आत्मविशुद्धि के कारण मोक्ष प्रापक होगा पर वह साध्य नहीं है। साध्यता है, अतीत कर्मों की निर्जरा। इसलिए गहराई से विचार करने पर यह समझ में आयेगा कि जैनधर्म में दया और पण्य को भी कर्मबन्धन का कारण माना गया है। ईसाई आदि धर्मों में सेवा को परमात्मा की प्राप्ति से जोड़ा गया है, पर जैनधर्म ने उसका सूत्र भविष्य से न जोड़कर अतीत से जोड़ा है, क्योंकि कोई स्वार्थ उससे न जुड़ा रहे अन्यथा अहंकार उठ खड़ा होगा। इसलिए वैयावृत्ति को उत्तम सेवा माना गया है। इस सेवा में न वासना की कोई गन्ध रहती है और न उसमें किसी प्रकार का रस रहता है। यह तो एक औषधि है, जिससे दूसरे का रोग मिटा दिया जाता है। साधक के मन में कर्तृत्व का भाव नहीं रहता। इस सेवा के क्षेत्र में आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, रोगी, नवदीक्षित, कुल (शिष्य समुदाय), Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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