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________________ १०१ चिकनाई का स्वाद और उनके बने व्यञ्जनों का प्रयोग एक साधारण गृहस्थ कैसे भूल सकता है? पर तपस्वी उनसे दूर रहता है। स्वाद की आसक्ति से मुक्त तपस्वी ही सही साधना कर पाता है। अनेक तरह के आयंबल, उपवास और आतापनायें तपस्वी किया करता है। वह स्त्री, भक्त (आहार), देश और राज विकथाओं से भी मुक्त रहता है, क्योंकि इन विकथाओं में सांसारिक वासनायें भरी रहती हैं। राग, द्वेष, क्रोध, अहंकार और काम आदि भावों से ओतप्रोत ये कथायें आध्यात्मिक साधना में बाधक बन सकती हैं, तपस्वी के मनको आकर्षित कर सकती हैं। अत: तपस्वी उनसे दूर रहता है। आज सारा संसार भौतिकता की चकाचौंध में आकण्ठ डूब रहा है। उसे स्वयं के बाहर की चिन्ता तो है, पर अन्तर की चिन्ता उसमें दिखाई नहीं देती। हर क्षेत्र चाहे वह राजनीतिक हो या व्यापारिक, सामाजिक हो या शैक्षणिक,भ्रष्टाचार से आकण्ठ डूबा हुआ है। उसे आध्यात्मिकता की ओर झांकने की भी इच्छा नहीं होती। यदि कुछ करता भी है, तो मात्र पाखण्ड या बाहरी दिखावा रहता है। हाँ, यदि हम आध्यात्मिक का अर्थ अन्तर या भीतर करें, तो जो भी प्रतिक्रियायें होती हैं, चाहे वे अहंकार हो या कषाय, सब कुछ आध्यात्मिक कहलायेंगी, क्योंकि उनका अस्तित्व भीतर रहता है। संतोष, असंतोष, तृष्णा आदि सभी तत्त्व अन्तर्जगत के तत्त्व हैं। ये तत्त्व प्रतिक्रियायें हैं। इनका झुकाव वृत्तियों अथवा क्रियाओं की ओर रहता है। जो भी झुकाव होता है, वह प्रतिक्रिया का फल है। वृत्ति का अर्थ क्रिया है। क्रिया ध्यान के द्वारा जानी जाती है। आचरण, व्यवहार आदि प्रतिक्रियायें हैं। ध्यान के माध्यम से ही साधक अपने आपको चेतना-जगत् में चला जाता है। तप और साधक ध्यान वस्तुतः चित्त को बदलने की एक क्रिया है, एक जीवन पद्धति है, जहाँ विवेक जाग्रत हो जाता है और बदलाव शुरु हो जाता है। साधक कायोत्सर्ग और सामायिक आदि के माध्यम से आत्मचिन्तन करता है, संसार चिन्तन करता है और विशुद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। यही उसकी यथार्थ साधना है। साधना का प्राण है-विवेकपूर्वक किया गया तप, जिससे हमारी सुषुप्त शक्तियाँ जाग्रत होती हैं और आत्म से परमात्म अवस्था को प्राप्त होती हैं। यह तप सम्यक् हो, रत्नत्रय से संयुक्त हो तभी सार्थक होता है, अन्यथा शरीर को कृश करना कोरी मूर्खता मानी जाती है, कर्मों की निर्जरा उससे नहीं होती। तामली ने साठ हजार वर्ष तक ऐसा ही तप किया, जो आत्मदर्शनपरक नहीं था। इसे बालतप कहा जाता है। सम्यग्ज्ञान के बिना किया गया तप तप नहीं है। कड़कड़ाती धूप में आतापना लेना, वृक्ष-शाखा से औंधे लटकना, एक पैर या शीर्षासन के बल पर खड़े रहना, छाती तक भूमि में गड़े रहना, काई या तृण मात्र खाकर बने रहना, नासाग्र तक जल में खड़े रहना आदि Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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