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________________ सत्य : साधना की ओर बढ़ता पदचाप अर्थ और प्रतिपत्ति क्रोध, मान, माया और लोभ पर सात्त्विक चिन्तन करने से क्रमश: उत्तम शमन, मार्दव, आर्जव और शौच भाव चेतना में जाग्रत हो जाते हैं तथा चित्त सत्य-साधना की ओर बढ़ जाता है। साधक सत्य की साधना में यथार्थ को यथार्थ रूप में देखने का प्रयत्न करता है। उसे जीवन और परमात्मा की सत्यता पर विश्वास होने लगता है। सत्य की परिभाषायें लगभग समान हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है - दूसरों को सन्ताप पहुँचाने वाले वचनों को त्यागकर जो अपना और दूसरे का हित करने वाला वचन बोलता है, उसे सत्य धर्म होता है (बा० अणु०, ७४)। उमास्वामी, पूज्यपाद और अकलंक इसी परिभाषा को शब्दान्तर से दुहराते हैं। अभयदेवसूरि ने अनलीक, अविसंवादन, योग, काया की अकुटिलता, मन की अकुटिलता और वाणी की अकुटिलता को सत्य धर्म माना है। कार्तिकेय ने जिनवचन को सत्यवचन मानने की बात कही है। उत्तराध्ययन में भावसत्य, करणसत्य और योगसत्य का यहाँ समावेश किया गया है। साधन और स्वभाव सत्य को समझने के लिए जिज्ञासा होना आवश्यक है। ज्ञान की खोज में रहे बिना अज्ञान को स्वीकार कर लेना कठिन होता है। सत्य की प्राप्ति अज्ञान की स्वीकृति से जुड़ी हुई है। तभी सत्य-साधक को शास्त्रों और सिद्धान्तों में जीवन दिखाई देता है। अन्यथा झूठ का इतना अधिक प्रचार हो जाता है कि झूठ ही एक दिन सच लगने लगता है। सत्य को परखने वाला स्वतन्त्रता और परतन्त्रता का अर्थ भी जानने लगता है। संसार में असक्त व्यक्ति परतन्त्र है। ऊंट को खूटी से छोड़ देने पर भी वह अपने आपको बंधा समझता है और स्वत: नहीं उठता। परतन्त्रता वस्तुत: कल्पित होती है। रस्सी पर दाना डालकर लोग तोते को पकड़ लेते हैं, क्योंकि तोता रस्सी को छोड़ नहीं पाता। उससे वह अपने आपको बंधा समझने लगता है। Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002590
Book TitleTirthankar Mahavira aur Unke Das Dharma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Ritual
File Size7 MB
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