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दीक्षादि अनुष्ठान उन के समक्ष, उनकी साक्षी से किये जाते हो वैसा भाव प्रस्तुत किया गया है। चारों दिशाओं को उद्देश कर यह स्थापना करनी है ऐसा समझना । ऐसी स्थापना महदंश में श्रीफल से ही करनी होती है, परन्तु सोम की स्थापना पूर्व दिशा में और वेसमण अर्थात् वैश्रमण कुबेर की उत्तर दिशा में स्थापना करें। सोम, यम, वरूण और कुबेर ये चार जैनशास्त्रों की मान्यता अनुसार के लोकपाल हैं । श्री भगवतीसूत्र के तीसरे शतक के सातवे उद्देशक में कहा है कि-'रायगिहे नगर जाव पन्जुवासमाणे एवं वयासी सक्कस्स णं भन्ते ! देविंदस्स देवरण्णो कति लोगपाला पण्णत्ता ?-राजगृही नगरी में पर्युपासना करते (श्री गौतम) इस प्रकार बोले कि 'हे गोयमा ! चतारि लोगपाल पन्नता, ते जहा सोम, जम, वरूण, वेसमण'-भगवान ने कहा कि 'हे गौतम ! चार लोकपाल कहे गये हैं : सोम, यम, वरूण
और वैश्रवण (कुबेर) । (प्रतिष्ठा समय इन लोकपालों की द्वारपालों के रूप में स्थापना की जाती है । उसमें सोम के हाथ में धर्म (मनुष्य) यम के हाथ में दंड, वरूण के हाथ में पाश और कुबेर के हाथ में गदा होती है) 'ये चार लोकपाल अनुक्रम से संध्याप्रभ, वरशिष्ट, स्वयंजल और वल्गु नामके विशिष्ट विमानों में रहते हैं । सोम की आज्ञा में अंगारक, विकालिक, लोहिताक्ष, शनैश्वर, चंद्र, सूर्य, शुक्र, बुध, बृहस्पति और राहु इत्यादि देव रहे हुए हैं । यम की आज्ञा में यमकायिक. यमदेवकायिक, प्रेतकायिक, प्रेतदेवकायिक, असुरकुमार, असुरकुमारि, कंदर्पो, नरकपालों
और आभियोगिक देव रहे हुए हैं । वरूण की आज्ञा में वरूणकायिक, वरूणदेव-कायिक, नागकुमार, नागकुमारियाँ, उदधिकुमार, उदधिकुमारियाँ, स्तनितकुमार, स्तनितकुमारियाँ और अन्य देव रहे हुए हैं । एवं वैश्रवण की आज्ञा में वैश्रवणकायिक, वैश्रवणदेवकायिक, सुवर्णकुमार, सुवर्ण-कुमारियाँ, द्वीपकुमार, द्वीपकुमारियाँ, दिक्कुमार, दिक्कुमारियाँ, वाणव्यंतर, वाणव्यतरियाँ और दूसरे देव भी रहे हुए हैं । 'निर्वाणकलिका में बताये अनुसार इन देवों को बिम्ब प्रतिष्ठा के समय प्रथम प्राकार में द्वारपाल के रूप में स्थापित किये जाते हैं।"
(प्रतिक्रमणसूत्र-प्रबोध टीका भाग-३ पृ. ६१४) ८. घी का दीपक आराधना के दिनों दौरान अखंड रखना युक्ति-युक्त दीखाई देता है | उसकी बाती विशेष ही होती हैं ये सब
उत्तम विधिकारों के पास से समझ लेना चाहिये । ९. जाप के दौरान धूप चलता रहे उस का ख्याल रखना चाहिये । दैवी तत्त्व की जागृति हेतु धूप अनिवार्य अंग है । १०. ऐसी महान आराधना के समय पूर्व से तैयार किये हुए अखंड अक्षत हो तो अच्छा । ११. आराधना तथा साधना में सुपारी का अत्यंत ही महत्त्व है अतः नाम से उल्लेखित द्रव्यों के लिए कभी विकल्प न खोजें ।
सुपारी से ही कार्य करें। १२. पंचामृत के घड़े में रजत-द्रव्य (चांदी-सिक्के) घड़े भरते समय ही पधरा दें (रख दें) विज्ञान के छात्र जानते हैं कि विद्युत् प्रवाह
की सुंदर वाहकता सुवर्ण में होती है और उस कुछ ही कम वाहकता चांदी में है, इसलिये ऋषभदेव भगवान की एवं चक्रेश्वरी की दोनों की यदि चांदी की प्रतिमा हो तो अत्यंत ही उत्तम कहा जायेगा । इस प्रतिमा का प्रमाण ११", ९" या ७" या ५" तक हो तो अच्छा । भक्तामर आदीश्वर रूप में चार प्रातिहार्यवाली एक चांदी की और पंचधातु की सुंदर प्रतिमा तैयार करने में आई है। जिसकी तस्वीरें इस ग्रंथ में हैं । पू. गुरूदेव की निश्रा में सफल बन गये छरी पालित संघ के दौरान योगानुयोग से आदीश्वर भगवान के एक सुंदर प्राचीन, पंचतीर्थ जैसे प्रतिमाजी प्राप्त हो गये थे और इस प्रतिमाजी का अद्भुत प्रभाव संघयात्रा के दौरान देखा
गया था । १३. पंचवर्ण के पुष्पों का अवश्य ख्याल करें । सत्तरभेदी पूजाओं में भी पंचवर्ण के फूलों की माला की बात आती है । पुष्प
मानसिक भावना के प्रबलतम वाहक हैं । जैसे पुष्प सूर्य से पोषण प्राप्त करते हैं, सूर्य के प्रकाश की और सदा ही जागृत होते हैं, वैसे पुष्पों पर वासित हुई मनोभावना भी हजारों करोडों मील दूर पहुँचने का सामर्थ्य रखती होगी यह भली भाँती समझ में आये ऐसी बात है ।
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XXXXXXXX आराधना-दर्शन २४५)
आराधना-दर्शन
२४५)
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