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________________ से मंत्र सिद्ध किये थे तथा सुन्दर रीति से शासन प्रभावना में गुरू भगवन्तों की सहायता की थी । जिस को ऐसी तीव्र तमन्ना हो ऐसे श्रावक भी गुरू भगवंतोके मार्गदर्शनमें ऐसी महान मंत्र सिद्धि कर सकते है । . ऐसी मंत्र सिद्धियाँ होने से क्या समस्त दुनिया जैन बन जायेगी? सब लोग अच्छे हो जायेंगे? आपका प्रश्न थोड़ा आक्षेपात्मक है । हम जानते हैं कि उत्कृष्ट काल में १७० तीर्थंकर भगवंत एक ही समय में ढाई द्वीप में विचरते एवं विहरते हैं । ऐसे काल में भी समस्त लोग जैन नहीं बने तो मात्र मंत्र सिद्धि से समस्त लोग कैसे जैन बन सकते हैं ? "अगर सब लोग जैन न बनें और सब लोग साधु भी न बनें तो इतने परिश्रम की जरूरत ही कहां है" यह प्रश्न ही अनुचित है । संसार असार है । इस संसारमें सुख एवं दुःख, दिन एवं रात का मेल रहता ही है । ठीक उसी प्रकार समयकत्व एवं मिथ्यात्व दोनों एक साथ रहेंगे ही। हमारा सतत यही प्रयत्न होता रहे कि जिन आत्माओं को सम्यक्त्व की राह पर आने की इच्छा हो उन्हें सुलभता से मार्ग मिल जाये । एवं वे मंत्र सिद्धि जैसे महान कार्य कर सकें । धर्म-कथाओं में हमें पहले आक्षेपिणी कथा करके और फिर विक्षेपिणी कथा करने का फरमान प्राप्त हुआ है । वैसे मंत्रों एवं मंत्रों के प्रभाव से सामान्यतया जैन धर्मके प्रति आकर्षण तो होता ही है और बादमें उन आत्माओं को परमार्थ बता कर परम पद के साथ जोड़ा जा सकता है | • मंत्र से आकर्षित हो कर आत्मा धर्म की प्राप्ति करे यह तो बहुत बड़ी बात है। परन्तु जब उसका मन सिर्फ चमत्कारों तथा भौतिक इच्छाओं की तरफ ही आकर्षित हो तो क्या किया जाये ? इसी लिए मंत्र साधकों को प्रबल गुरूगम की नितांत आवश्यकता है । अर्थी आत्माओं में से कौन सी आत्मा मोक्ष मार्ग पर आने में सक्षम है, और कौन मोक्ष मार्ग से दूर जाने वाली है, उसकी परख करना जरूरी है । साथ ही मंत्र दाता का भी आंतरिक ख्याल जीव को मोक्ष-मार्ग की ओर जोड़ने का होना चाहिये । मात्र स्वयं के मान-सन्मान की इच्छा से मंत्र साधना अगर हो तो यह गलत होगा... यदि मंत्र साधक निष्ठावान हो तो योग्य आत्माओं को सन्मार्ग पर जरूर ला सकेगा । मंत्र साधक को भी अर्थी आत्माकी योग्यता जानकर ही उसे मंत्र फल से लाभान्वित करना चाहिये । मंत्र साधना एवं उसका फल प्रदान करने से पहले अर्थी आत्मा को व्रत-नियम ग्रहण करने के लिए उत्साहित करना चाहिए । जो आत्मा कोई भी छोटे से छोटे व्रत-नियम पालने को तैयार न हो... ऐसी आत्मा को मंत्र-दीक्षा नहीं देनी चाहिये तथा मंत्र सिद्धि के फल से लाभान्वित नहीं करना चाहिए। नवकार मंत्र चौदह पूर्व का सार है.. ऐसा कहने में आया है... और यही महामंत्र है.. तो दूसरे मंत्रों की ‘वश्यकता क्या है ? तथा दूसरे मंत्रों की आराधना किस लिए करनी ? नवकार मंत्र महामंत्र है.. हमारा प्राणमय मंत्र है । इतना ही नहीं परन्तु इस नवकार मंत्र पर आधारित दूसरे मंत्रों का भी समावेश इसी महामंत्र में है । फिर भी हमारा समाज विविध रूचिवाला है । इसीलिए उसको ध्यानमें रख कर दूसरे मंत्रों की रचना की गई है । नमस्कार महामंत्र से आज तक अनेक चमत्कारिक साधनाएं हुई हैं.. परन्तु इसका सीधा संबंध पंच परमेष्ठि के गुणों की उपासना के साथ है। आत्मा को परमेष्ठिमय बनाने के लिये हैं.. इसीलिये इसे महामंत्र माना गया है। जब कि दूसरे कितने ही मंत्र सम्यक्दृष्टि देवों को उद्देश्य में रख कर बनाये गये हैं । दूसरे मंत्र उन देवों की आराधना से उनकी शीघ्र सहायता प्राप्त करने के लिये हैं । जो मंत्र पंच-परमेष्ठि या कोई एकाध परमेष्टि को ध्यान में रख कर बने है... तो यह नवकार मंत्र का ही विस्तार हैं एवं नवकार मंत्र का ही स्वरूप है । राजा-महाराजाओं को निमंत्रण देने पर उनके साथ-साथ उनके मंत्री गण भी स्वयं आ जाते हैं । परन्तु कभी-कभी विशेष कार्य के लिये मंत्रीयों को स्वतंत्ररूप से निमंत्रित करना पडता है । ठीक इसी प्रकार कभी-कभी देवों को भी स्वतंत्र रूप से निमंत्रित करना पड़ता है । वैसे अन्य मंत्रों का प्रधान भाव होते हुए भी उसका संबन्ध शासन के पंच-परमेष्टि के साथ होता ही है । हमनें आराधना-दर्शन एवं रहस्य-दर्शन में भी बार-बार नमस्कार महा मंत्र आराधना आवश्यक बताई है । प्रत्येक मंत्र की माला गिनने के साथ-साथ नवकार मंत्र की माला भी अवश्य गिननी चाहिये । ऐसा बार-बार बताया है । जैसे रोटी से पेट भर जाता है, तो भी रोटा खाते है, वैसे ही अनेक रूचि वाले मंत्र आराधक होते हैं... इसी लिए उनको ध्यानमें रख कर अनेक मंत्र प्रवर्तित हुए है.. और आगे भी होंगे । अतः अलग-अलग देवो के लिये लागू होने वाले अलग-अलग मंत्रों की आवश्यकता है। छोटेमोटे कार्य अन्य मंत्रों से भी सिद्ध हो सकते हैं । शासन प्रवर्तन हमेशा सापेक्ष भाव से ही होता है... तथा सापेक्ष में वैविध्यता होती (२२६ रहस्य-दर्शन XXXXXXXXXXXXXXXXXXX Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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