SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस आशंका से उसके स्वजनों का मन सदा आशंकित रहता है... ऐसे अनिश्चतता के माहौल में,... ऐसे अनिश्चतता के वातावरण में, कुछ अनहोनी घटना न घटित हो जाये, ऐसी आशंका बनी रहती हैं । ऐसे कठिन क्षण में हमारी इच्छा हो या न हो हम ऐसे महान शक्ति के सर्जक... ऐसे मंत्रो को, देवों को और परमात्मा को याद किये बगैर नहीं रह सकते । पिछले कई वर्षों के दरम्यान टी.बी., चेचक जैसी जान लेवा बीमारीयों की दवा के शोध से, उन रोगों से भले ही मानव मुक्त हुआ हो.... परन्तु ऐसा जानने में आता है कि केन्सर, वाईरस इन्फेक्सन, एवं एड्स जैसी जान लेवा बीमारीयों ने जीवन संग्राम को नये प्रश्नों से घेर लिया है । ऐसी परिस्थिती में मानव को किसी अलौकिक महाशक्ति के सहारे की जरूरत नहीं पड़ती ऐसा मानना अतार्किक है । मानव मन बहुत ही स्वार्थपूर्ण है, बहुत ही विलास प्रिय हैं... इसीलिए जब वह बिमार पड़ता है, तब डाक्टरों द्वारा बताए गये खाने-पीने सम्बधी सब परहेजों का कडाई से पालन करता है... परन्तु जब वह ठीक हो जाता है, तब उसका आचरण ऐसा हो जाता है... मानो, स्वास्थ्य संबंधी नियमों को कभी सुना ही न हो | मनुष्य अपनी स्वार्थवृति या स्वच्छंद वृति को नास्तिकता का जामा पहना दे वह अलग बात है । वस्तुतः तो जीवन जीने की लालसा भी आस्तिकता की ही मुख्य नींव है । जो जीवन को चाहता है या जिसको जीना अच्छा लगता, है, वे सब आस्तिक है । परन्तु आस्तिकता में आने के बाद धर्म के विविध नियमों को मानने के झमेले में पड़ने से तो अच्छा नास्तिक ही रहना... ऐसी भावना सहज ही मनुष्य में पैदा हो जाती है । वैसे बाह्य व्यवहार मे स्वयं की नास्तिकता को सिद्ध करने वाले मनुष्य के अंतर मे तो कहीं न कहीं महाशक्ति के सहारे की इच्छा जरुर रखता है। स्वयं के मन-पसंद या मन के अनुसार अगर कुछ हो नहीं सकता या वह कर नहीं पाता... तो ऐसी न मिटने वाली इच्छा पूर्ति के लिए वह सतत संशोधनशील रहता है । ऐसी चेतना के लिए मंत्र शक्ति ही एक महान उपाय है । मनुष्य बाहर से भले ही मंत्र शक्ति या दिव्य ईश्वरीय शक्ति का विरोध करता हो या मानने से इन्कार करता हो... परन्तु वह अंतत्मिा से सतत ऐसी शक्ति को प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रहता है । कितने ही वैज्ञानिक ईश्वर में श्रद्धा अपने-अपने तरीके से अवश्य रखते है। शुद्ध अर्थ में नास्तिक रहना अशक्य है, साथ ही साथ शुद्ध अर्थ में आस्तिक रहना भी दुःशक्य है- महान साधना है । शुद्ध नास्तिक को मंत्र की जरुत नहीं होती ऐसा हम स्वीकारते है, साथ ही शुद्ध आस्तिक स्वयं ही मंत्र सिद्धि से पार पहुँच जाता है । इसीलिए मंत्र सिद्धि उसके पीछे-पीछे घूमती है । ऐसे दोनों प्रकार के व्यक्ति दुनियां में एक प्रतिशत के लाखवें भाग मे भी नहीं है । अतः बाकी के लोगों को तो मंत्र की जरूरत है ही... परन्तु सरल लोग स्वयं की बात को नम्रता से कबूल करते है और वक्र प्रवृति के लोग अप्रत्यक्ष रुप से मंत्र शक्तियों के लिए मात्र खाक छानते फिरते है । . अगर मंत्र शक्ति से सब कुछ हो जाता तो भूत काल के महामंत्रविद् आचार्य भगवंतो ने अपने तमाम कार्य मंत्रों से ही क्यों नहीं किये? ठहरिए ! हम आपकी बात का जवाब देगें पर पहले आप जवाब दिजीए । आप कभी बिमार नहीं पड़े ? जरूर पड़े होंगें। आपने दवाई नहीं ली ? जरुर ली होंगी । आप दवाई से ठीक नहीं हुए ? जरुर हुए होंगे । अब मैं आपसे पूछता हूँ कि जिस दवाई से आप एवं आप जैसे अन्य सब लोग ठीक हो गये, तो दुनिया में आप और सब लोग हर बार उसी दवाई से क्यों ठीक नहीं होते ? बस ! जब आप इस प्रश्न के उत्तर पर विचार करोगे तब समझ सकोगे कि मंत्र से फायदा होता है एवं उससे उपयोगी कार्य भी होते है । सफलता कई वार मिलती हैं तो कई बार असफलता भी हाथ लगती है । क्योंकि कई बार कर्म बाह्य निमित्त को पा कर हट जाते है तो कभी हठीले बने हुए निकाचित कर्म किसी भी उपाय से दूर नहीं होते । अतः हजारों को आर्शीवाद देने वाले महामंत्रविद् को स्वयं के कर्मो के उदय को तो भोगना ही पड़ता है । जिनके नाम स्मरण मात्र से रोग दूर हो जाते हैं उनको भी रोग की भयंकर यातना सहन करनी पड़ती है । सहज निःस्पृह दशा में आने पर भी सनत कुमार राजर्षि जैसे महात्मा ने मात्र अपने यूंक से अपने देह के रोगों को मिटाने में समर्थ होते हुए भी रोग की वेदना को समता पूर्वक (समभाव पूर्वक) सहन किया था । वैसे देखा जाये तो जिन्होनें मंत्र सिद्ध किये हों उन्हें अपने दुःखो को मंत्र द्वारा ही दूर करना या जिन्हे लब्धि प्राप्त हो गई हो उनको लब्धि का उपयोग हमेशा करना ऐसा जरुरी नहीं है । हमारे सामने तीर्थंकर परमात्माओं के चरित्र है,... प्रभु महावीर का भी चरित्र है । उन्होने उपसर्गो को सम-भाव पूर्वक सहन किया है । उनके शासन मे भी मंत्र एवं मंत्र सिद्धि की बातें सफल रीति से चलती आई है। इससे यह सिद्ध होता है कि मंत्र की उपयोगिता के लिए भी अनेकान्त से ही विचार करना चाहिए। XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX रहस्य-दर्शन रहस्य-दर्शन २२३ २२३) Jain Education International 2010_04. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy