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________________ इत्यन्तानि अष्टौ काव्यानि महा विद्या गर्भितानि दृब्धानि । तानि अष्टौ "ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशम्" इत्यादिना नवमेन काव्येन सहितानि प्रातः प्रात यः पठेत् स सारस्वतादीः पूर्वोक्ता अष्टौ सिद्धीः प्राप्नोति स्वयं, परं च प्रापयति ।" .इस प्रकार विद्या एवं उप-विद्या के साथ होम करना, आहुति एवं होम करते वक्त मंत्रोच्चार के साथ देवता का नाम यथा-योग्य लेना । इस रीति से तप-जप एवं होम के साथ सूरि-मंत्र की पहली पीठिका की आचार्य भगवंत आराधना करते हैं (सिद्ध करते हैं) तब सारस्वत, रोगापहारिणी, विषापहारिणी, बन्ध मोक्षिणी, श्री संपादिनी, परविद्याच्छेदिनी, दोषनिर्नाशिनी एवं अशिवोपशमनी, ये आठ महा विद्यायें स्व एवं पर के लिए साध सकते हैं। इसका क्या अर्थ है ? जब अपने या दूसरों के लिए सारस्वत (बुद्धि-वर्धन) की इच्छा हो... जब अपने या दूसरों के रोग-निवारण (हरण) की इच्छा हो... जब अपने या दूसरों के विष को दूर करने की इच्छा हो... अपने या पर के बंधनों को दूर करने की इच्छा हो... अपने या पर के काम के लिए श्री लक्ष्मी संपादन करने की इच्छा हो... जब अपने या दूसरो के कार्मण आदि दोष-निवारण की इच्छा हो... जब मरकी आदि महामारी के दोष को उपशमन करने की इच्छा हो... "तब प्रथम पीठिका का स्मरण करना... सिर्फ अल्प स्मरण मात्र से ही सिद्धि प्राप्त होती है । आचार्य प्रवर श्री मानतुंग सूरीश्वरजी “यैः शान्तरागः रुचिभिः' इत्यादि श्लोक से “जलभार ननैः' अंत तक के बारह से उन्नीसवें श्लोक तक आठ श्लोकों में आठ-महाविद्याओं को काव्य में गर्भित किया है । ये आठ श्लोक "ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं" इस नौंवें काव्य सहित जो भव्यात्मा प्रातः काल की शुभ-वेला में पढेंगे, स्मरण करेंगे उन्हें सारस्वत आदि पूर्वोक्त आठ महा-सिद्धि स्वयमेव प्राप्त होगी... एवं वे दूसरों को भी आठों महा-सिद्धि प्राप्त करा सकेंगे।" ऐसा ही उल्लेख अंचलगच्छीय मेरूतुंगाचार्यजी ने भी किया है। श्री भगवती-पद्मावती माता की कृपा एवं महान वरदान प्राप्त श्री खतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी ने भी भक्तामर की इन आठ गाथाओं की महिमा गायी है। “अथवा यैः शांतराग रुचिभिः इत्यादिको ज्ञानं यथा त्वयि विभाति एतावदन्तः स्तवो नित्यं भणनीयः । सर्वेषाम् (परेषाम) आत्मनः सदा शान्तिकम् । अयमेव श्री पुण्डरिकादेशो अति स्पष्ट: गणधरविद्यागर्भितं वृत्ताष्टकम् इदं प्रातरेव भणनीयम् नान्यवेलायाम्" उपरोक्त पंक्तितओं में आचार्य प्रवर ने स्पष्ट शब्दो में उल्लेख किया है कि ये आठ-गाथा स्पष्ट रूप से पुण्डरिकादेश है एवं सूरि-मंत्र से गर्भित है । इस लिए इन गाथाओं का पाठ प्रातः काल में ही करें, दूसरे काल में इसका पठन सर्वथा वर्जित है । वैसे सूरि-मंत्र के चार-चार कल्पों में आठ या नौ गाथाओं की अनुपम-महिमा का वर्णन किया गया है । इस दृष्टिकोण से गाथा (क्र. १२ से २० तक) अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं । श्री सोमसुंदर गणि के शिष्य महोपाध्याय हेमहंस गणि ने भी इन नौ गाथाओं का महात्म्य दिखाया है। आपने इन नौ श्लाकों के ३६ पादों की पादपूर्ति रूप (३८) अडतीस गाथा का साधारण जिन स्तवन बनाया है । वे भी लिखते है कि "भक्तामर मध्य गतानि यानि; वृत्तानि नव सातिशयान्यतीव; एकैक तच्चरणरूपसमस्याडहं स्वस्वाश्रयैव स्थिति जुषैव नुवामि (जैन स्तोत्र संचम तृतीय विभाग पृ. ७२) यह गाथाएं पुंडरिक आदेश वाली होने से अत्यंत रहस्य पूर्ण है । इन गाथाओं के मंत्रों का रहस्य आचार्य भगवंत सुयोग्य शिष्यको ही देते है । पर इनकी विशेष आम्नाय बिगरह लिख नहीं शकते है । योग्यता आये बिना सब जान लेने का कूतुहल कुपथ गामी बना शकता है । शास्त्रों के रहस्यों को जिस किसको कह देने की वृत्ति से गुरूको भी दोषित बनना पडता है । संपूर्ण भक्तामर का पाठ करने की जिनमें क्षमता नहीं है उन्हें भी इन नौ गाथाओं का पाठ अवश्य करना चाहिए । सूरिमंत्र के आराधक आचार्य भगवंत को तो इन नौं गाथा का पाठ अवश्य करना चाहिए। जिन्हें सिर्फ इन नौं गाथा का पाठ करना है उन्हें सुबह १२-०० के पहले ही पाठ कर लेना चाहिए । विशेष आराधना-साधनाके अनुष्ठान के बिना इन गाथाओं का पाठ अन्य किसी समयमें नहीं करना चाहिए । पू. गुरूदेव विक्रमसूरीश्वरजी म. की निश्रामें इन नौं गाथाओं का लघु भक्तामर पूजन संकलित किया गया था। यह पूजन लघु पूजन होने पर भी महाप्रभाविक पूजन है । यह पूजन भी सुबह १२-०० के पहले ही पूर्ण हो ऐसा ही पढाया जाता है । इन महान एवं महाप्रभाविक सूरिमंत्र का तो भक्तामर स्तोत्र के साथ संबध है । पर जैन मंत्रविश्व के चमत्कारीक श्री चिंतामणी मंत्र का भी भक्तामर स्तोत्र में संबंध है | अतः भक्तामर महामंत्रो से विभूषित है । KKAKKAKKAKKAKKAKKAKKAKKAKKK रहस्य दर्शन १८९) Jain Education International 2010_04 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002588
Book TitleBhaktamara Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajyashsuri
PublisherJain Dharm Fund Pedhi Bharuch
Publication Year1997
Total Pages436
LanguageSanskrit, English, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size50 MB
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