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उद्धरणानि
म.
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७७६
(मू०
(टी.)
(टी.)
७७७
-
৬৬৬
७७८
(टी.) (मू०) (टी.) (मू.) (टी.) (टी.)
७७८
(टी.
७७९ ७८०
(मू०) (टी.)
[पा० धा० ११३२] [पा० १-१-५६] [व्या. महा० १-१-५६] [व्या. महा० १.१-५६] [वाक्य० का १-१३] [वाक्य० का २-१३०] [वाक्य० का २-१३१] [वाक्य० का० २.१३२] [पा० ४-१-१२०] [पा. धा० १४४२] [वाक्य. कां० २-१३३] [संम० १-४७] [पा० १.१-१] [पा० २-३-१] [पा० २-३-२] [पा० २-३-६५] [व्या० महा० ५-४-१९] [ग्रन्थकृतः] [व्या, महा० २-३-४०] | श्रीसिद्धसेन० ]
(मू०)
(टी.) (टी.) (टी.)
७८७ ७८७ ७८७
क्रियाकारकमेदेन० वाग्दिग्भूरश्मि दिवु क्रीडाविजिगीषा० स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ स्थान्यादेशपृथक्त्वात्० गुरुवगुरुपुत्रे. अर्थप्रवृत्तितत्त्वानाम् सोऽयमित्यभिसम्बन्धात्. तयोरपृथगात्मत्वे. लोकेऽर्थरूपताम् स्त्रीभ्यो ढक् भुजो कौटिल्ये अशक्तः सर्वशक्ती अण्णोण्णानुगताण वृद्धिरादैन् अनभिहिते कर्मणि द्वितीया कर्तृकर्मणोः कृति कृदभिहितो भावो. शक्तेर्वा सर्वशक्तेर्वा कारकाणामविवक्षा शेषः यत्र ह्यर्थों वाचं व्यभिचरति० तं शब्दमभिजल्पं प्रचक्षते ऋगतौ तयोरपृथगात्मत्वे. लोकेऽर्थरूपताम् यस्तु प्रयुक्त कुशलो. सिद्धेऽर्थे शब्दे सम्बन्धे च जप जल्प व्यक्तायां वाचि णामं ठवणा दिविये. यथार्थाभिधानं शब्दः नामस्थापनाद्रव्यभिन्न ण्यासश्रन्थो युच् आङ् मर्यादाभिविध्योः आगमतो जाणए उवउत्ते. असत्योपाधि यत्सत्यम् चतुर्थी चाशिष्यायुष्य. नक्षत्रं दृष्ट्वा वाचो विसृजन्ति उक्तार्थानामप्रयोगः
(टी.)
७८७ ७८९
७८९
(टी.) (मू०) (मू०) (टी.)
(मू०)
७९८
[पा. धा० ९६१ ] [वाक्य० कां० २-१३१] [वाक्य. कां. २-१३२] [व्या. महा० १-१-९] [व्या० महा० १-१-१] [पा० धा० ३९७.३९८] [संम० १.६] [तत्त्वार्थभा. १-३५]
(टी.)
८०१
८०३
टी.)
(टी.)
८०४
टी.)
८१३
[पा० ३.३-१०७] [पा० २.१-१३] [अनु० सू० १५०] [वाक्य० का २-१२९] [पा० २-३-७३] [त्तैत्ति० ६-१-४-२७] [व्या. महा० १-१-४३]
८१५
(टी.)
(टी.) (टी.)
८१६ ८१८ ८१८
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