SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन। सुमति पदाप्रभ सिंह गज वृषभ अचानक कबूतर और बाज गायब हो गये और एक दिव्य देहधारी देवता प्रकट हुआ। उसने उद्घोष किया"दयामूर्ति करुणावतार महाराज मेघरथ की जय हो ! महाराज मेरा अपराध क्षमा करें। ईशानेन्द्र द्वारा आपकी करुणा भावना और शरणागत-रक्षा की प्रशंसा सुनकर परीक्षा लेने के लिए ही मैंने यह माया रची है। आप धन्य हैं। आपको कष्ट हुआ, क्षमा करें।" शरणागत जीव की. रक्षा के लिये राजा मेघरथ का यह आत्म-बलिदान संसार में आज भी गौरव के साथ गाया जाता है। अविचल निर्विकारता राजा मेघरथ एक बार पौषध युक्त अष्टम तप कर रहे थे। वे परम शान्त रस में लीन थे। उनकी निर्विकार निश्चल मनःस्थिति देखकर इन्द्र देव ने वन्दना करते हुए कहा-“हे गृहस्थयोगी ! आपको मेरा नमस्कार है। संसार में आपके समान निर्लिप्त निर्विकार जीवन जीने वाले कोई विरले ही महापुरुष होंगे।" ___ इन्द्र महाराज की प्रशंसा सुनकर स्वयं इन्द्राणियों ने राजा मेघरथ की परीक्षा लेने का विचार किया। उन्होंने नृत्यांगना का रूप बनाकर नृत्य गायन करते हुए अत्यन्त श्रृंगार रसमय वातावरण बना दिया। किन्तु उस विशारवर्द्धक अत्यन्त मोहजनक वातावरण में भी राजा मेघरथ की ध्यान-साधना भंग नहीं हुई। उनकी एकाग्रता और निर्लिप्तत चरम सीमा पर थी। नृत्यांगनाओं के हाव-भाव और कामोद्दीपक चेष्टाएँ व्यर्थ गईं। तब इन्द्राणियों ने प्रशंसा करते हुए क्षमा माँगी। (चित्र S-1/ब) . राजा मेघरथ ने संसार त्यागकर दीक्षा ली और एक लाख पूर्व तक विविध प्रकार के तप, ध्यान, सेवा आदि उत्कृष्ट धर्म आराधना करते हुए तीर्थंकर-नाम-कर्म की महान् पुण्य प्रकृति का बंध किया। देह त्यागकर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव बने। सर्वार्थसिद्ध विमान से ३३ सागरोपम की आयुष्य पूर्णकर मेघरथ के जीव ने हस्तिनापुर के इक्ष्वाकुवंशी राजा विश्वसेन की रानी अचिरादेवी के गर्भ में प्रवेश किया। रानी ने १४ महास्वप्न देखे। ज्येष्ठ कष्णा १३ के दिन रानी ने महान पुण्यशालो पुत्र को जन्म दिया। उस समय तीनों लोक में प्रकाश जगमगा उठा। अत्यन्त वेदनामय नरक में भी कुछ क्षण के लिए सुख की लहर-सी दौड़ गई। मनुष्य लोक में स्वाभाविक आनन्द की वर्षा होने लगी। __एक बार हस्तिनापुर जनपद में भयंकर वर्षा, तेज तूफान आदि प्राकृतिक उपद्रव हुए। चारों तरफ और उस घनघोर वर्षा के बाद जनपद में महामारी का रोग फैल गया। प्रतिदिन सैकड़ों लोग मरने लगे। जनता ने राजा के समक्ष रक्षा की पुकार की, परन्तु राजा भी इस महामारी से करने में स्वयं को असमर्थ पा रहा था। प्रजा की पीड़ा और जन-हाहाकार से दु:खी होकर राजा विश्वसेन विचलित हो गये। उन्होंने प्रतिज्ञा की-"जब तक प्रजा का यह उपद्रव शान्त नहीं होगा मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूँगा।" राजा की भीष्म प्रतिज्ञा से द्रवित होकर शक्रेन्द्र स्वयं उपस्थित हुए और राजा से कहने लगे-“महाराज ! आप व्यर्थ ही इतने चिन्तित और दुःखी क्यों हो रहे हैं ? जहाँ चिन्तामणि रत्न, कल्पतरु एवं कामधेनु विद्यमान है, वहाँ किस बात की कमी? महारानी अचिरादेवी के उदर में साक्षात् शान्ति अवतार भगवान पल रहे हैं और आप अशान्ति का अनुभव कर खिन्न हो रहे हैं ? आश्चर्य !" तब इन्द्र महाराज ने गर्भस्थ भावी तीर्थंकर Illustrated Tirthankar Charitra सचित्र तीर्थंकर चरित्र लक्ष्मी पष्यमाल चन्द्र (६२ ) Sam Education internationa-ZUTU ZUS Trmatterfersmarostromiya Homenjamenientrynerg
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy