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________________ ऋयम (O) अजित (0) सम्भव (2) अभिनन्दन ) सुपति () पळभO. ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन सुमति । पद्मप्रभ सिंह गज वृषभ उसी समय भगवान ऋषभदेव हस्तिनापुर नगर में पधारे। भगवान का आगमन सुनकर सैकड़ों-हजारों लोग उनके दर्शनार्थ उमड़ पड़े। लोग भिन्न-भिन्न प्रकार के उपहार सजाकर लाने लगे। परन्तु प्रभु ऋषभदेव ने कुछ भी ग्रहण नहीं किया। वे सीधे राजमहल की ओर बढ़ते चले आ रहे थे। अचानक श्रेयांसकुमार ने भगवान ऋषभदेव को राजमहल की ओर पधारते देखा, वह अपलक दृष्टि से देखता ही रह गया। गहन और एकाग्र भावपूर्वक देखने से उसे जाति-स्मरण ज्ञान हुआ, पिछला जन्म चित्रपट की भाँति स्मृतियों में झलकने लगा। उसने तत्काल समझ लिया-“भगवान ऋषभदेव एक वर्ष से निराहार विचर रहे हैं और मुनि-मर्यादा के अनुकूल शुद्ध भिक्षा देने का किसी को ज्ञान नहीं है।" वह शीघ्र ही राजमहलों से नीचे उतरा, भगवान की भक्तिपूर्वक वन्दना की, प्रार्थना की-“प्रभो पधारिए ! आज ही मेरे आँगन में ताजे इक्षुरस के १०८ कलश आये रखे हैं, वे पूर्ण शुद्ध हैं, आपके अनुकूल हैं, कृपाकर इक्षुरस ग्रहण कीजिए।" प्रभु ऋषभदेव ने अपने दोनों हाथों का अंजलिपुट बनाकर इक्षुरस ग्रहण किया। अत्यन्त भक्तिभावपूर्वक श्रेयांसकुमार ने इक्षुरस दान कर भगवान को वर्षीतप (एक वर्ष ४० दिन लगभग) का पारणा कराकर महान् धर्म लाभ प्राप्त किया। देवताओं ने आकाश से “अहोदानं, अहोदानं" की घोषणा कर हर्ष ध्वनियाँ की। रत्नों, पंचवर्णी पुष्पों तथा सुगंधित जल आदि की वृष्टि कर आनन्द मनाया। संसार में धर्म-दान की प्रवृत्ति का शुभारंभ हुआ। इस पुनीत स्मृति में यह वैशाख शुक्ला तृतीया का दिन “अक्षय तृतीया" के नाम से पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। आज भी वर्षीतप के पारणे के रूप में लाखों जैन इस महापर्व को मनाते हैं। (चित्र R-4/ब) केवलज्ञान और मोक्ष भगवान ऋषभदेव एक हजार वर्ष तक मौन युक्त कठोर तप करते-करते एक दिन विनीता नगरी के शकटमुख उद्यान में वट वृक्ष के नीचे शुक्ल ध्यान में लीन थे। उस समय भगवान शुक्ल ध्यान में तल्लीन अत्यन्त निर्मल उच्च श्रेणी पर चढ रहे थे। सक्ष्म ध्यान की गहनता के बल पर उन्होंने मोह कर्म को नष्ट कर दिया। फिर ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय किया तो आत्मा में परम पवित्र ज्ञानालोक प्रकट हुआ। ऋषभदेव केवलज्ञान केवलदर्शन प्राप्त कर 'जिन' बन गये। जिस समय भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ उस समय समूचे संसार में क्षण-भर के लिए दिव्य आलोक-सा फैल गया। असंख्य देव और अगणित मानव समूह भगवान की वन्दना करने आने लगे। चक्रवर्ती भरत को सूचना मिलते ही वे भी माता मरुदेवा के साथ भगवान ऋषभदेव का कैवल्य महोत्सव मनाने आये। ___ माता मरुदेवा हाथी पर बैठकर जब शकटमुख उद्यान में पहुंची तो उन्होंने दूर से ही देवताओं द्वारा रचित दिव्य समवसरण में भगवान को विराजमान देखा', हजारों सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान अगणित देव देवेन्द्रों से पूजित भगवान का दिव्य मनोहारी स्वरूप देखते-देखते माता मरुदेवा भाव-विभोर हो गयीं। उच्च निर्मल भाव धारा में बहते हुए माता मरुदेवा ने भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया, और जब तक केवलज्ञान की उद्घोषणा होती मरुदेवा शरीर त्यागकर मोक्ष/निर्वाण को प्राप्त हो गईं। भगवान ऋषभदेव ने अचानक उद्घोषणा की-“मरुदेवा भगवइ सिद्धा !'' ___भगवान ऋषभदेव ने अपनी प्रथम धर्म देशना में ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र रूप रत्नत्रय का विशद व्याख्यान दिया। मानव-जीवन का महत्त्व और कर्तव्य बोध पाकर सम्राट् भरत के ज्येष्ठ १. देखो समवसरण का चित्र।। Illustrated Tirthankar Charitra ( २८ ) सचित्र तीर्थंकर चरित्र लक्ष्मी पुष्पमाला चन्द्र विमल अनन्त धर्म शान्ति कुन्थु अर Linkedweenierintenmenamel
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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