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________________ ध्वजा पद्म सरोवर किया। उस समय ब्रह्मलोक निवासी नव लोकांतिक देवों ने उपस्थित होकर प्रार्थना की-“हे मानव जाति के त्राता ! संसार को त्याग मार्ग दिखाने का आपका संकल्प उत्तम है, शीघ्र ही आप धर्म मार्ग का प्रवर्तन कीजिए।" ___ एक वर्ष तक प्रजा को मुक्त हस्त से दान (वर्षीदान) देकर ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा नवमी के शुभ दिन अशोक वृक्ष के नीचे खड़े होकर स्वयं अपने हाथों से अपना केश लुचंन कर मुनि धर्म ग्रहण किया। सौधर्मपति इन्द्र ने प्रभु के केशों को दिव्य वस्त्र में ग्रहण कर उन्हें क्षीर समुद्र में प्रवाहित कर दिया। प्रभु ऋषभदेव जब पाँचवीं बार मुष्टि से अपने केश लुचन कर रहे थे तब इन्द्र महाराज ने निवेदन किया-"स्वामी ! यह शिखा (चोटी) आपके मस्तक व कन्धे पर अत्यन्त शोभायमान हो रही है, इसे रहने दीजिए।" भगवान ने इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर ली। इसी केश राशि के कारण ऋषभदेव का नाम केशी, केशरिया भी प्रसिद्ध हुआ। दीक्षा लेते समय भगवान के अनेक अनुयायी राजा एवं अन्य लोगों ने सोचा-"हमारे स्वामी जिस मार्ग का अनुसरण कर रहे हैं वही मार्ग वास्तव में श्रेष्ठ है। अतः हमें भी उनके साथ गृह त्यागकर दीक्षित होना चाहिए।" इस प्रकार विचार कर चार हजार व्यक्तियों ने प्रभु के साथ-साथ केश लुंचन कर मुनि मार्ग स्वीकार कर लिया। (चित्र R-3) भिक्षा में इक्षुस्स दान __ भगवान ऋषभदेव उस युग के प्रथम मुनि या भिक्षु थे। लोग मुनि की आचार-मर्यादा से अनभिज्ञ थे। उन्हें कैसी भिक्षा दी जाए यह भी पता नहीं था। भगवान ऋषभदेव जब भिक्षा के लिए नगर में आते तो लोग उन्हें“स्वामी !, महाराज !" आदि के आदरसूचक सम्बोधन देकर स्वर्ण, आभूषण, वस्त्र, फल आदि की भेंट सजाकर लाते, परन्तु ऋषभदेव के लिए यह सब अग्राह्य था। वे मौन भाव से वापस वन लौट जाते। इस प्रकार शुद्ध भिक्षा के अभाव में एक वर्ष से अधिक समय तक निर्जल निराहार तप करते रहे। इस बीच जो चार हजार व्यक्ति उनके साथ मुनि बने थे, उन्हें भूख, प्यास सताने लगी। वे भगवान ऋषभदेव से आकर पूछते-"स्वामी ! हमें भूख लगी है, प्यास सता रही है, हम क्या करें? क्या खायें? क्या पीयें ?" परन्तु भगवान ऋषभदेव कठोर मौन धारण किये रहते। भूख-प्यास से व्याकुल होकर उनमें से अनेक मुनियों ने झरनों, नदियों का पानी पीना चालू कर दिया। कन्द, मूल, फल खाकर समय बिताया। कुछ जंगलों में जाकर तापस/परिव्राजक बन गये। ___ भगवान ऋषभदेव विहार करते-करते एक बार हस्तिनापुर नगर की ओर पधारे। हस्तिनापुर में उस समय बाहुबली के पुत्र सोमप्रभ राजा राज्य करते थे। उनका पुत्र था-श्रेयांसकुमार। उस रात श्रेयांसकुमार ने एक विचित्र स्वप्न देखा-"स्वर्ण के समान चमकने वाला मेरु पर्वत काला पड़ गया है और मैं दूध के कलश से उसका अभिषेक कर उसे पुनः उज्ज्वल बना रहा हूँ।” (चित्र R-4/अ) ___ प्रातःकाल श्रेयांसकुमार ने अपने पिता महाराज सोमप्रभ से इस विचित्र स्वप्न की चर्चा की। राजा ने कहा-“मुझे भी रात को कुछ ऐसा ही एक विलक्षण स्वप्न आया है।" और उसी समय नगर-श्रेष्ठी सुबुद्धि ने भी अपने विचित्र स्वप्न की चर्चा की, परन्तु स्वप्न का सूचक रहस्य कोई नहीं समझ सका। तब श्रेयांसकुमार अपने महल के झरोखे में बैठकर स्वप्न के रहस्य पर विचार करने लगे। समुद्र विमानभवन रत्न राशि निर्धूम अग्नि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव . ( २७ ) Bhagavan Rishabhdev, The First Tirthankar -or-nivancturersomaroseronly www.patrettorary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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