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________________ () अ () सम्मानि) अस्मिन्न (1) सुची (0) पण सिंह गज यथासमय सुमंगला के भरत, ब्राह्मी आदि ९८ सन्तानें हुईं, तथा सुनन्दा ने 'बाहुबली' और 'सुन्दरी' को जन्म दिया। कृषि आदि का शिक्षण __ऋषभकुमार अत्यन्त प्रतिभाशाली, दूरदर्शी और पुरुषार्थवादी थे। वे मानव मनोविज्ञान के गहरे विद्वान् भी थे। उन्होंने मनुष्यों की रुचि, उनके स्वभाव, शारीरिक गठन आदि का सूक्ष्म निरीक्षण कर उन्हें उनकी योग्यता व रुचि के अनुसार कार्य सौंपे। कुछ लोगों को कृषि (खेतीवाड़ी) करना सिखाया और कुछ लोगों को कृषि उत्पादों की वितरण-व्यवस्था सँभालने के लिए मषि (व्यापार) की शिक्षा दी। अंक-विद्या और अक्षर-विद्या के रूप में उन्होंने मषि (स्याही-लेखनी) का उपयोग करना सिखाया। वन्य पशुओं से धान्य की सुरक्षा तथा तस्करों व शत्रुओं से संपत्ति आदि की रक्षा करने के लिए उन्होंने वीर बलिष्ट व्यक्तियों को असि कर्म (शस्त्र-संचालन) की शिक्षा दी। इसी प्रकार बर्तन बनाना, वस्त्र बनाना, भवन बनाना, शिल्प-कला, संगीत, नृत्य आदि अनेक प्रकार की विद्याएँ सिखाकर उन्होंने समाज में ज्ञान, कला, मनोरंजन, व्यापार व राज्य-व्यवस्था के मूलभूत सिद्धान्तों का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया। (चित्र R-1/य) __ ऋषभकुमार के आदेश-निदेश व संरक्षण में तत्कालीन मानव-समाज बहुत शीघ्र प्रगति करने लगा। तब वृषभ जनता की माँग पर महाराज नाभिराय ने एक विशाल समारोह करके ऋषभकुमार का राज्याभिषेक कर राज्य की संपूर्ण जिम्मेदारी उनके कुशल हाथों में सौंप दी। इस राज्याभिषेक समारोह में नाभिराय, मरुदेवा ने उपस्थित होकर ऋषभ को आशीर्वाद प्रदान किया; भरत, बाहुबली आदि सभी परिवार सम्मिलित हुआ। युगलियों ने कमल पत्तों में नदियों का पवित्र जल भरकर ऋषभ का चरण-सिंचन किया। इन्द्र के आदेश से कुबेर ने विनीता नगरी का निर्माण किया जो आगे चलकर “अयोध्या' नाम से प्रसिद्ध हुई। इस प्रकार लक्ष्मी ऋषभदेव अपने युग के प्रथम राजा बने। (चित्र R-2) त्याग-मार्ग का प्रवर्तन बहुत वर्षों तक ऋषभदेव मानव-समाज को अनेक प्रकार की विद्याएँ और कलाएँ सिखाते रहे। उनके पिता के राज्य में मानव समूह कुलों में तो बँटा था, परन्तु उनके कोई अलग नाम नहीं थे। ऋषभदेव ने उन पुष्पमाला समूहों को उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल और क्षत्रियकुल आदि नाम दिये तथा व्यापार, रक्षा; कृषि, सेवा आदि कार्य करने वालों को उनके कार्यानुसार वैश्य, क्षत्रिय, शूद्र आदि वर्गों में विभक्त कर दिया। तब तक ब्राह्मण वर्ण नहीं था। बहुत काल तक (६३ लाख पूर्व तक) राज्य सँभालने के बाद ऋषभदेव के मन में सांसारिक वस्तुओं के प्रति सहज ही विरक्ति होने लगी। उन्हें लगा, अब यह सब जिम्मेदारियाँ पुत्रों को सौंपकर मुझे आत्म-साधना प्राप्त करना चाहिए और फिर संसार को भोगों का त्यागकर संयम-साधना की शिक्षा भी देनी चाहिए। क्योंकि जीवन का लक्ष्य भोग नहीं, त्याग ही है। त्याग से ही मनुष्य को आत्मिक शांति और आनन्द की उपलब्धि हो सकती है। ऋषभदेव का चिन्तन था-"वस्तु के भोग में सुख नहीं, केवल सुख की कल्पना है। सुख तो भोग-इच्छा की निवृत्ति में है।" ___अपने विचारों को कार्यरूप में परिणत करते हुए महाराज ऋषभदेव ने सबसे बड़े पुत्र भरत को अयोध्या का, बाहुबली को तक्षशिला का तथा अन्य पुत्रों को छोटे-बड़े राज्य सौंपकर दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय Illustrated Tirthankar Charitra ( २६ ) सचित्र तीर्थकर चरित्र विमल अनन्त धर्म शान्ति अर Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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