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ध्वजा
नाभिराजा स्वयं विद्वान् और दीर्घ अनुभवी थे। इन शुभ स्वप्नों को सुनकर उन्होंने मरुदेवा से कहा"देवी ! आपकी रत्नकुक्षि से एक महान् भाग्यशाली आत्मा का जन्म होगा, जो संसार को सुख-शान्ति का मार्ग दिखायेगा।" जन्मोत्सव
चैत्र कृष्णा अष्टमी की अर्धरात्रि के समय महादेवी मरुदेवा ने एक युगल सन्तान को जन्म दिया। पुत्र का जन्म होते ही चारों दिशाएँ प्रकाश से जगमगा उठीं। भीनी-भीनी सुगन्धित पवन बहने लगी। चारों ओर एक अनिर्वचनीय सुख का वातावरण निर्मित हो गया।
महान् पुण्यशाली पुत्र का जन्म होने पर भिन्न-भिन्न दिशाओं में रहने वाली छप्पन दिशाकुमारियाँ आई। उन्होंने पहले भावी तीर्थंकर की माता को तीन प्रदक्षिणा करके वन्दना की। फिर तीर्थंकर स्वरूप बालक की स्तुति की और उनके सभी प्रकार के सूतिका कर्म किये। ___ उसी समय प्रथम स्वर्ग के अधिपति सौधर्मेन्द्र शक्र महाराज को ज्ञात हुआ कि पृथ्वी लोक में प्रथम तीर्थंकर का जन्म हो गया है। शक्र महाराज तत्काल अपने विशाल देव परिवार के साथ वहाँ उपस्थित हुए। सर्वप्रथम उन्होंने माता को प्रणाम किया
पद्म "हे रत्नकुक्षिधारिणी, जगत् माता ! मैं, सौधर्मेन्द्र शक्र आपको नमस्कार करता हूँ।"
सरोवर फिर शक्रेन्द्र ने माता को सुख-निद्रा में सुला दिया और अपने पाँच दिव्य रूप बनाये। बालक को सावधानीपूर्वक अपने हाथों में उठाकर मेरु पर्वत पर लाये और उसका जन्म अभिषेक किया। इस महोत्सव में ६४ इन्द्र और अगणित देवी-देवता सम्मिलित होकर उत्सव मनाते हैं। यह तीर्थंकरों का जन्म-कल्याणक उत्सव संसार में अद्वितीय उत्सव होता है। (चित्र R-1/ब) नामकरण
दसरे दिन नाभिराजा ने पत्र का जन्मोत्सव मनाया। स्वजन-परिजनों को प्रीतिभोज दिया, तथा सबके सन्मुख घोषणा करते हुए नाभिराजा ने कहा-“बालक की जंघा पर वृषभ का लांछन (चिन्ह) है तथा माता ने सर्वप्रथम वृषभ का स्वप्न देखा है, इस कारण हम बालक का नाम 'ऋषभकुमार' रखना चाहते हैं।" बालक के | विमानसाथ जन्मी कन्या को "सुमंगला" नाम से पुकारा गया। इक्ष्वाकुवंश की स्थापना
ऋषभकुमार जब लगभग एक वर्ष के हुए तो एक दिन सौधर्मेन्द्र दर्शन करने के लिए आये। उनके हाथ में इक्षदण्ड (गन्ना) था। बालक ऋषभ ने ललककर पिता की गोद में बैठे-बैठ ही इक्षदण्ड लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। इन्द्र ने बालक को इक्षुदण्ड समर्पित किया। बालक इक्षु प्रिय होने के कारण उनके वंश का नाम 'इक्ष्वाकु वंश' प्रख्यात हुआ। (चित्र R-1/स) विवाह
युवा होने पर ऋषभकुमार ने सुनन्दा नाम की एक अन्य युगलिया कन्या के साथ विवाह करके “विवाह" निधूम प्रथा का प्रारम्भ किया। फिर नाभिराय ने सुमंगला के साथ उनका पाणिग्रहण करवाया। (चित्र R-1/द)
अग्नि
समुद्र
भवन
राशि
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव .
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Bhagavan Rishabhdev, The Firat Tirthankar
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