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________________ सुपार्श्व चन्द्रप्रभ सुविधि शीतल श्रेयांस वासुपूज्य १. प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ध्वजा कुम्भ आदिमं पृथिवीनाथं, आदिमं निष्परिग्रहम्। आदिमं तीर्थनाथं च, ऋषभस्वामिनं स्तुमः॥ -आचार्य हेमचन्द्र इस युग के जो आदि नृपति थे, और प्रथम मुनिव्रतधारी। प्रथम तीर्थकर्ता थे वे ही, ऋषभ स्वामि जग जय कारी॥ जैन काल गणना सिद्धान्त के अनुसार एक कालचक्र में १२ आरे होते हैं। उसके छः आरे अवसर्पिणी काल कहलाते हैं और छः आरे उत्सर्पिणी काल। अवसर्पिणी काल का सामान्य अर्थ है-जिस काल प्रवाह में प्राणियों के बल, आरोग्य, शरीर-सुख, सरलता आदि सद्गुण तथा प्रकृति के रस, जल-वायु आदि क्रमशः पद्य सरोवर अल्प-अल्पतर होते जाते हैं। युगलिया-युग इस अवसर्पिणी काल के प्रथम, द्वितीय और तृतीय आरे के अंतिम समय तक मनुष्य प्रकृति पर आश्रित था। कल्पवृक्ष से उसकी आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती थीं। वह स्वभाव से सरल, शान्तिप्रिय, अल्पभोगी था। उस समुद्र समय का पर्यावरण पूर्णतः शुद्ध था और जल अत्यन्त स्वादिष्ट शीतल व मधुर। माटी भी ईख जैसी मीठी। वायु परम शक्ति और पुष्टिदायक तथा अन्न-फल वनस्पति आदि पूर्ण तुष्टिदायक थे। एक बार थोड़ा-सा फल-जल ग्रहण कर लेने पर महीनों तक भूख नहीं लगती थी। स्वाभाविक है-जब भूख की पीड़ा नहीं सताती हो, तो पाप भी कम होता है, कलह भी कम होता है। मनुष्य, पशु, पक्षी सभी प्रकृति के साथ शांतिपूर्वक विमानघुल-मिलकर रहते थे। भवन धीरे-धीरे प्रकृति में परिवर्तन होने लगा। कल्पवृक्षों से फल आदि वस्तुएँ कम मिलने लगीं। तो फिर उनके लिए संघर्ष भी होने लगा। उस संघर्ष को मिटाने व शान्ति एवं व्यवस्था के साथ जीने के लिए मनुष्य कुलों (समूहों, कबीलों) में बँटने लगे। उन कुलों में एक मुखिया होता था जिसे "कुलकर" कहते थे। वह NE "कुलकर" मानवों के पारस्परिक संघर्ष मिटाकर शांति व्यवस्था कायम रखता था। राशि कुलकर व्यवस्था के चलते हुए सातवें कुलकर हुए नाभिराजा। उनकी पत्नी का नाम था-मरुदेवा ! नाभिराजा के समय तक का काल “युगलिया" काल कहलाता है। जिसका अर्थ है एक माता-पिता से केवल दो सन्ताने एक साथ जन्म लेतीं और वही आगे चलकर पति-पत्नी का युगल (जोड़ा) बन जाते। वे सभी प्रकार से परस्पर संतुष्ट और सुखी जीवन बिताकर अपनी दो सन्तान (युगल) को जन्म देकर बिना किसी निधूम आधि-व्याधि के सुखपूर्वक साथ ही प्राण त्याग देते। इस प्रकार युगल जीवन की यह परिपाटी चलती थी। अग्नि प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ( २३ ) Bhagavan Rishabhdev, The First Tirthankar Jaimadcatromirmernational-zomato - TIvatearersamarosery www.jalneliorary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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