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________________ सुपार्श्व चन्द्रप्रभ सुविधि शीतल तीर्थकर कौन ? इस अनादि अनन्त संसार में जीव विभिन्न योनियों में परिभ्रमण करता हुआ कभी देवगति, कभी तिर्यंच, 'मनुष्य और कभी नरक गति के सुख-दुःख का भोग करता रहता है। कभी जीव के सुख-दुःख और जन्म-मरण का मुख्य कारण है, उसके भीतर रहे हुए राग और द्वेष के संस्कार या परिणाम । राग-द्वेष के परिणामों के कारण वह शुभ-अशुभ कर्मों का बंधन करता है और उन शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप विभिन्न योनियों / गतियों में परिभ्रमण करता है। प्रत्येक जीव अनन्त शक्तियों का पुँज है। ज्ञान का अक्षय प्रकाश तथा सुख एवं आनन्द का अनन्त स्रोत आत्मा में निहित है। ज्ञान एवं आनन्द आत्मा का निज-स्वभाव है । परन्तु जन्म-जन्मान्तरों से अज्ञान एवं मोह में डूबे रहने के कारण आत्मा अपनी अनन्त शक्तियों को प्रकट करने का पर्याप्त पुरुषार्थ नहीं कर पाता । पुरुषार्थ करता भी है, तो राग-द्वेष के संस्कारों की सघनता के कारण उसका पुरुषार्थ पूर्ण सफल नहीं हो पाता । इसलिए आवश्यकता है-राग-द्वेष की वृत्तियों पर नियंत्रण करने की । श्रेयांस आत्मा जब निज-स्वरूप का बोध कर लेता है तो वह स्वयं की शक्ति को पहचान लेता है और धीरे-धीरे मोह एवं राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने का भी प्रयत्न करता है। राग-द्वेष को समूल नष्ट करने की यह दीर्घकालीन साधना ही संयम एवं समता का मार्ग है। आत्मा, जब अपने प्रबल पुरुषार्थ से, विविध प्रकार की तप ध्यान - समभाव आदि की साधना द्वारा मन की राग-द्वेषात्मक ग्रंथियों (गाँठों) को क्षीण करने लगता है, तब वह निर्ग्रन्थ बनता है। निर्ग्रन्थ भाव में रमण करते हुए आत्मा एक दिन राग-द्वेष का संपूर्ण क्षय कर मोह को जीत लेता है। मोह को जीतने के कारण आत्मा "जिनपद" को प्राप्त करता है। जिन का अर्थ है-विजेता । जिसके राग-द्वेष नष्ट हो गये । मोह एवं अज्ञान का समूल नाश हो गया। मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन चार घातिया कर्मों का क्षय हो गया वह आत्मा वीतराग, 'जिन', सर्वज्ञ या केवली कहलाता है। मुनिसुव्रत Jain Education International 2010_03 वासुपूज्य कोई भी भव्य आत्मा “जिन पद" प्राप्त कर सकता है। सर्वज्ञ बन सकता है, परम आत्मा अर्थात् परमात्मा बन सकता है, किन्तु तीर्थंकर हर कोई आत्मा नहीं बन सकता। क्योंकि तीर्थंकर एक विशेष पुण्य प्रकृति का परिणाम है।' १. तीर्थकर और केवली में क्या अन्तर है तथा तीर्थंकर विषयक ज्ञातव्य तथ्य, देखें परिशिष्ट में। तीर्थंकर कौन ? ( १९ ) मल्लि जो परमात्मा केवलज्ञानी अरिहंत देव अपनी वाणी द्वारा अहिंसा, सत्य आदि धर्म रूप तीर्थ की स्थापना करते हैं, अथवा साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका रूप चार तीर्थ की स्थापना करके धर्म का प्रवर्तन करते हैं, विशिष्ट अतिशयधारी जिन भगवान "तीर्थंकर" कहलाते हैं। नमि अरिष्टनेमि For Private & Personal Use Only Who is a Tirthankar? पार्श्व महावीर ध्वजा कुम्भ पद्म सरोवर समुद्र विमान भवन रत्न राशि निर्धूम अग्नि www.jainelibrary.org
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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