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________________ ऋषभ अजित सम्भव अभिनन्दन सुमति पद्मप्रभ सिंह गज वृषभ महापंडित इन्द्रभूति के आशा भरे आश्वासनों से अन्य सभी पंडितों के मुझाये हुए मुख खिल उठे। तभी महापंडित इन्द्रभूति अपने ५०० शिष्य छात्रों को साथ लेकर प्रभु महावीर के समवसरण की ओर बढ़े। इन्द्रभूति को आत्मानुभूति समवसरण के प्रथम सोपान पर चरण रखते ही महापंडित इन्द्रभूति के अन्तःकरण में एक बिजली-सी चमक गई। मन में उथल-पुथल मच गई। दूर से ही उन्होंने श्रमण महावीर के अद्भुत तेजोदीप्त मुख-मंडल को देखा तो जैसे सूर्य की तेज किरणों से हिमालय की बर्फ पिघलने लगती है इन्द्रभूति का अहंकार पिघलने लगा। मन में संशय और विचिकित्सा के निर्झर फूटकर बहते हुए-से अनुभव हुए। "इन्द्रभूति गौतम ! तुम आ गये ?" समवसरण के तृतीय द्वारं में प्रवेश करते ही प्रभु महावीर का मेघ गंभीर सम्बोधन इन्द्रभूति के कानों में पड़ा। इन्द्रभूति को आश्चर्य हुआ-"महावीर मुझे पहचानते हैं !" फिर गर्व में हाथ उठाकर सोचने लग- “मेरी विश्व विश्रुत विद्वत्ता के कारण परिचित तो होंगे ही।" (चित्र M-28/1) "इन्द्रभूति गौतम ! तुम वेदों के महापंडित होकर भी आत्मा की सत्ता के विषय में शंकाशील हो?" प्रभु महावीर की वाणी सुनकर इन्द्रभूति विस्मय से अभिभूत हो गये। प्रभु ने मधुर और मैत्रीपूर्ण शब्दों में पुकारा-“इन्द्रभूति गौतम ! जिन वेदों के आधार पर तुम आत्मा के विषय में शंका करते हो, उन्हीं वेदों में आत्मा की स्वतंत्र सत्ता के स्पष्ट प्रमाण विद्यमान हैं। क्या कभी तुमने सोचा है, आत्मा क्या है? कौन है ? और आत्मा के विषय में शंका करने वाला कौन है ? ज्ञान और ज्ञान का संवेदन-दो अलग वस्तु नहीं हैं। आत्मा स्वयं ज्ञानमय है (विज्ञानघन है) और "ज्ञान" यही आत्मा की पहचान लक्ष्मी | है। आत्मा अमूर्त, अतीन्द्रिय तत्त्व है, इसे इन्द्रियों से नहीं, इन्द्रियातीत अनुभूति से ही पहचान सकते हो, अनुभव कर सकते हो। तुम स्वयं की सत्ता का अनुभव करो।" प्रभु महावीर के मुख से वेदों के वाक्य और आत्मा के अस्तित्व में उनके प्रबल अकाट्य तर्क सुनकर इन्द्रभूति की शंका का उच्छेद हो गया। अहंकार पिघला। विनम्रता आते ही सत्य की दिव्य किरण का दर्शन पुष्पमाला होने लगा। इन्द्रभूति गौतम के मन का अंधकार मिट गया। ____ “प्रभु ! मैं विजीगिषु (विजय का इच्छुक) बनकर आया था, परन्तु अब केवल जिज्ञासु हूँ। मुझे अनन्त सत्य का ज्ञान दीजिए। मैं इन दिव्य चरणों का शिष्यत्व ग्रहण करना चाहता हूँ !'' इन्द्रभूति महावीर के चरणों में झुक गये। (चित्र M-28/2) ___ “अहासुहं देवाणुप्पिया"-महावीर का.अनाग्रही स्वर मुखरित हुआ। इन्द्रभूति गौतम भगवान महावीर प्रथम शिष्य और प्रथम गणधर बने। उनके साथ आये पाँच सौ छात्र शिष्य भी प्रभु के चरणों में प्रव्रजित हा गये। अवनि-अम्बर जयघोषों से गूंज उठा। इन्द्रभूति की दीक्षा के समाचार सुनते ही यज्ञशाला की विद्वद् मंडली हतप्रभ-सी रह गई। फिर भी दूसरे महांडित अग्निभूति ने साहस करके कहा-“मैं जाता हूँ उस मायावी महावीर के पास अपने बन्धु को छुड़ाऊँगा और महावीर को भी जीतकर आऊँगा.... " अग्निभूति भी अपने पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान Illustrated Tirthankar Charitra (१५८ ) सचित्र तीर्थंकर चरित्र सर्य Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.oly
SR No.002582
Book TitleSachitra Tirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Shreechand Surana
PublisherPadma Prakashan
Publication Year1995
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size13 MB
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